Saturday, August 13, 2016

प्रार्थना

बुद्ध ने धम्मपद के पहले वचन में कहा है, तुम जो सोचोगे, वही हो जाओगे। इसलिए सोच समझ कर सोचना। क्योंकि कल किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहरा पाओगे। और जो तुम आज हो गए हो, वह तुमने कल सोचा था, उसका परिणाम है। हमारी ही नासमझियां फलीभूत हो जाती हैं। हमारे ही गलत भाव सघन होकर आचरण बन जाते हैं। हमारे ही विचार केंद्रीभूत होकर जीवन बन जाते हैं। उठती है विचार की सूक्ष्म तरंग, चल पड़ी यात्रा पर, आज नहीं कल वस्तु बन जाएगी। सभी वस्तुएं विचार के सघन रूप हैं, कंडेस्ट थाट्स हैं। हम जो हैं, हमारे विचार का फल हैं।

 
तो अगर कोई प्रार्थना इतनी सघन हो जाए कि प्राण का रोया रोया कंपित होने लगे, हृदय की धड़कन  धड़कन आंदोलित होने लगे; रात के स्वप्न भी उससे प्रभावित हो जाएं, दिन की विचारणा भी उसमें डूबे; रात की निद्रा में भी वह आपके प्राणों में सरकने लगे; वह आपके जीवन की धुन बन जाए, तो परिणाम जाएगा। कोई देवता नहीं आएगा आपकी सहायता को। लेकिन दिव्य जहां जहा हमें दिखाई पड़ता है, उससे की गई प्रार्थना हमें तैयार करेगी। 


इस भेद को समझ लेना जरूरी है। अगर आपके खयाल में यह है कि हम प्रार्थना करें और निश्चिंत हो गए, क्योंकि अब देवता सम्हालेगा। जैसा कि अधिक लोग समझ बैठे हैं कि ठीक है, हमने प्रार्थना कर दी, अब काफी ओब्लाइज कर दिया देवता को, काफी अनुग्रह किया कि हमने प्रार्थना कर दी, अब बाकी तुम करो। करो, तो कल हम शिकायत लेकर खड़े हो जाएंगे। अगर और बिलकुल किया, तो कल हम कहेंगे कि कोई देवता नहीं है। सब झूठ है।


नहीं, प्रार्थना का यह अर्थ नहीं है कि हम किसी और पर छोड़ रहे हैं काम। प्रार्थना का यही अर्थ है कि हम प्रार्थना के बहाने  प्रार्थना एक डिवाइस है   हम प्रार्थना के बहाने अपने रोएं  रोएं तक को कंपित कर रहे हैं। और ध्यान रहे, प्रार्थना सर्वाधिक रोओं तक प्रवेश पाती है। अगर कोई पूरे भाव से प्रार्थना में रत हो जाए, तो कण कण शरीर का पुकारने लगता है। कोई विचार इतना गहरा नहीं जाता, जितनी प्रार्थना गहरी जाती है। कोई वासना भी इतनी गहरी नहीं जाती, जितनी प्रार्थना जाती है। लेकिन प्रार्थना करने की क्षमता...


ऐसी कोई भी वासना नहीं है जिसके बाहर आप छूट जाते हों। आप बाहर छूट ही जाते हैं। सेक्स जैसी कामवासना, जो कि गहनतम वासना है, उसके भी बाहर आप छूट जाते हैं। उसके भीतर भी आप पूरे नहीं होते। उसके भी आप बाहर होते हैं। कोई हिस्सा  गहन हिस्सा तो चेतना का बाहर ही रह जाता है। कामवासना में भी ज्यादा से ज्यादा शरीर प्रवेश करता है। जो बहुत कामातुर हैं, उनके मन का छोटा सा हिस्सा प्रवेश करता है। लेकिन चेतना और आत्मा तो बिलकुल बाहर रह जाती है। टोटल आप उसमें नहीं हो पाते। वही तो कामवासना की पीड़ा है। कामवासी मन कहता है कि पूरा इसमें डूब जाऊं और रस ले लूं लेकिन पूरा कभी डूब नहीं पाता। हमेशा पाता है कि डूबा, नहीं डूब पाया। गया एक सीमा तक, और वापस लौट आया। डूबने का क्षण आया था कि टूटने का क्षण गया।


प्रार्थना अकेली एक घटना है, जिसमें आदमी पूरा डूब पाता है  पूरा। जिसमें कुछ भी बाहर शेष नहीं रह जाता। प्रार्थना करने वाला भी बाहर शेष नहीं रह जाता, तभी प्रार्थना पूरी होती है। अगर प्रार्थना करने वाला मौजूद है और प्रार्थना आप कर रहे हैं, तो प्रार्थना एक बाहरी कृत्य है। वह आपको छुएगा नहीं। आप अछूते रह जाएंगे। लेकिन प्रार्थना इतनी गहरी हो जाती है  हो सकती है  कि प्रार्थना करने वाला पीछे बचता ही नहीं, प्रार्थना ही बचती है। तब उस प्रार्थना के आंदोलन में, उस प्रार्थना के कंपन में घटना घटती है और सन्मार्ग की यात्रा शुरू हो जाती है। रुख बदल जाता है। नीचे की यात्रा की तरफ से चेहरा फिर जाता है, ऊपर की तरफ चेहरा हो जाता है।

ईशावास्य उपनिषद 

ओशो