Monday, June 18, 2018

कंफ्यूसियस की यह अंतिम शिक्षा

मैं जीवन में उन्हें हारते देखता हूँ जो कि जीतना चाहते थे। क्या जीतने की आकांक्षा हारने का कारण नहीं बन जाती है


आँधी आती है तो आकाश को छूते वृक्ष टूट कर सदा के लिए गिर जाते हैं और घास के छोटे-छोटे पौधे आँधी के साथ डोलते रहते हैं और बच जाते हैं। 


पर्वतों से जल की धाराएँ गिरती हैं- कोमल, अत्यंत कोमल जल की धाराएँ और उनके मार्ग में खड़े होते हैं विशाल पत्थर- कठोर शिलाखंड। लेकिन एक दिन पाया जाता है, जल तो अब भी बह रहा है लेकिन वे कठोर शिलाखंड टूट-टूटकर, रेत होकर एक दिन मालूम नहीं कहाँ खो गये हैं।


परमात्मा के मार्ग अनूठे हैं। और जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है। इसलिए तो गणित के नियम जीवन के समाधान में बिल्कुल ही व्यर्थ भी हुए देखे जाते हैं। 


कंफ्यूसियस मरणशय्या पर थे। उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और कहा : मेरे बेटो, ज़रा मेरे मुँह में झाँककर तो देखो कि जीभ है या नहीं?'


निश्चय ही शिष्य हैरान हुए होंगे उन्होंने देखा और कहा : गुरुदेव, जीभ है!


कंफ्यूसियस ने पूछा : और दाँत?'


उन्होंने कहा : दाँत तो एक भी नहीं है!


कंफ्यूसियस ने पूछा : कहाँ गये दाँत? जीभ का जन्म तो हुआ था पहले और दाँतों का बाद में? फिर कहाँ गये दाँत?'


वे शिष्य अब क्या कहते? वे चुप एक-दूसरे का मुँह देखने लगे तो कंफ्यूसियस ने कहा : सुनो, जीभ है कोमल, इससे आज तक मौजूद है। दाँत थे क्रूर और कठोर, इसी से नष्ट हो गये हैं!


कंफ्यूसियस की यह अंतिम शिक्षा थी। लेकिन, मैं इसे जीवन की पहली शिक्षा बनाना चाहता हूँ। 

फूल और कांटे (अप्रकाशित साहित्य)

ओशो


 

Sunday, June 10, 2018

जीसस और क्रॉस


मनुष्य स्वतंत्र है। और परमात्मा के होने की यह घोषणा है। और मनुष्य जो चुनना चाहे, चुन सकता है। यदि मनुष्य ने दुख चुना, तो चुन सकता है। जिंदगी उसके लिये दुख बन जायेगी। हम जो चुनते हैं, जिंदगी वही हो जाती है। हम जो देखने जाते हैं, वह दिखायी पड़ जाता है। हम जो खोजने जाते हैं, वह मिल जाता है। हम जो मांगने जाते हैं, वह फुलफिलहो जाता है, उसकी पूर्ति हो जाती है।
दुख चुनने जायें, दुख मिल जायेगा। लेकिन, दुख चुनने वाला आदमी अपने लिये ही दुख नहीं चुनता। वहीं से अनैतिकता शुरू होती है। 

दुख चुनने वाला आदमी दूसरे के लिये भी दुख चुनता है! यह असंभव है कि दुखी आदमी और किसी के लिये सुख देने वाला बन जाये। जो लेने तक में दुख लेता है, वह देने में सुख नहीं दे सकता। जो लेने तक में चुनचुन कर दुख को लाता है, वह देने में सुख देने वाला नहीं हो सकता। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि जो हमारे पास नहीं है, उसे हम कभी दे नहीं सकते हैं। हम वही देते हैं जो हमारे पास है। यदि मैंने दुख चुना है, तो मैं दुख ही दे सकता हू। दुख मेरा प्राण हो गया है। जिसने दुख चुना है, वह दुख देगा। इसलिये दुखी आदमी अकेला दुखी नहीं होता, अपने चारो तरफ दुख की हजार तरह की तरंगें फेंकता रहता है। अपने उठनेबैठने, अपने होने, अपनी चुप्पी, अपने बोलने, अपने कुछ करने, न करने, सबसे चारों तरफ दुख के वर्तुल फैलाता रहता है। उसके चारों तरफ दुख की उदास लहरें घूमती रहती हैं और परिव्याप्त होती रहती हैं। तो जब आप अपने लिये दुख चुनते हैं तो अपने ही लिये नहीं चुनते, आप इस पूरे संसार के लिये भी दुख चुनते हैं।


तो जब मैंने कहा कि दुख के चुनाव ने मनुष्य को युद्ध तक पहुंचा दिया है। और रेले युद्ध तक, जो किटोटल आइड’ बन सकता है, जो कि समग्र आत्मघात बन सकता है। यह मनुष्य के दुख का चुनाव है जो हमें उस जगह ले आया। हमने सुना है बहुत बार, जानते हैं हम कि कभी कोई आत्मघात कर लेता है, लेकिन हमें इस बात का खयाल नहीं था कि दूखी आदमी आत्मघात कर लेता है यह तो ठीक ही है, एक रेला वक्त भी आ सकता है कि पूरी मनुष्यता इतनी दुखी हो जाये कि आत्मघात कर ले। हमारे बढ़ते हुये युद्ध आत्मघात के बढ़ते हुये चरण हैं। यह दुख के चुनाव से संभव हुआ है। और दुख को जब हम धर्म की तरह चुन लेते हैं, तो फिर अधर्म की तरह चुनने को कछ बचता भी नहीं है। जब दुख को हम धर्म बना लेते हैं, तो फिर अधर्म क्या होगा? जब दुख धर्म बन जाता है, तो गौरवान्वित भी हो जाता है। ग्लोरीफाइड’ भी हो जाता है।


यह जो दुख की धाराक्रॉसके आसपास निर्मित हुई, मैं नहीं कहता जीसस के आसपास, क्योंकि जीसस काक्रॉस से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। जीसस बिनाक्रॉसके भी हो सकते थे। यह जिन लोगों ने जीसस को सूली दी, जिन्होंनेक्रॉस दिया, ईसाइयत उनने पैदा की है। मैं निरंतर ऐसा कहता हूं कि ईसाइयत को पैदा करनेवाले जीसस नहीं हैं, ईसाइयत को पैदा करनेवाले वे पंडे और पुरोहित हैं यहूदी, जिन्होंने जीसस को सूली दी। ईसाइयत का जन्मक्रॉससे होता है, जीसस से नहीं। जीसस तो बेचाराक्रॉस पर लटकाया गया है, यह बिलकुल हीसेकेंड्री बात है, इससे कोई लेनादेना नहीं है। वहक्रॉस महत्वपूर्ण होता चला गया हमारे चित्त में। और जोजो अपने कोक्रॉस पर अनुभव करते हैं लटका हुआ, सूली पर, चाहे वह सूली परिवार की हो, चाहे वह सूली प्रेम की हो, चाहे वह सूली राष्ट्रों की हो, चाहे वह सूली धर्मों की हो चाहे वह सूली दैनंदिन जीवन की हो, जो लोग भी अनुभव करते हैं कि सूली पर लटके हैं, उन्हें जीवन एक महापाप हो जाता है। वे सारे महापाप को अनुभव करने वाले लोगक्रॉस से प्रभावित होते चले गये हैं और पैसिमिस्टों’ का एक बड़ा गिरोह सारी दुनिया में इकट्ठा हो गया है।

कृष्ण स्मृति 

ओशो

आजकल अनेक संत लोग चमत्कार बताते हैं, उसके संबंध में आपका क्या मंतव्य है?




आदमी बहुत कमजोर है और बहुत तरह की तकलीफों में है। उसकी तकलीफें बिलकुल सांसारिक हैं। अभी एक, और सामान्य आदमी ही नहींसुशिक्षित, जिनको हम विशेष कहें वे भी...। अभी एक चारछह दिन पहले कलकत्ते से एक डाक्टर का पत्र मुझे आया। वह डाक्टर है। तबादला करवाना है, कलकत्ते से बनारस। पत्नीबच्चे बनारस में हैं। तो मुझे लिखता है कि मैं सब तरह की पूजापाठ करवा चुका हूं। साधुसंतों के सब तरह के दर्शन कर चुका हूं सैकडों रुपए भी खर्च कर चुका इस पर, लेकिन अभी तक मेरा तबादला नहीं हो पाया। तब आखिरी आपकी शरण आता हूं। तबादला करवा दें, नहीं तो मेरा भगवान से भरोसा ही उठ जाएगा।

 

इधर मैं देखता हूं सौ मैं नित्यानबे आदमियों की तकलीफें ऐसी हैं। और जितना गरीब मुल्क होगा, उतनी ही तकलीफें ज्यादा होंगी। किसी को नौकरी नहीं, किसी को बच्चा नहीं, किसी को बीमारी है, किसी को कोई तकलीफ है। हजार तरह की तकलीफें हैं! यह जो तकलीफों से भरा हुआ आदमी है, यह चमत्कार की तलाश करता है। अगर कोई चमत्कार कर रहा है, तो इसे एक आशा बनती है। और तो सब आशा छूट गई। और यह सब उपाय कर चुका है, कुछ होता दिखाई इसे पडता नहीं। लेकिन अगर यह देख ले कि कोई आदमी हवा में से भभूत दे रहा है, तो फिर इसे भरोसा आता है कि अभी भी कुछ आशा है। मुझे भी लडका मिल सकता है। जब हवा से भभूत आ सकती है। तो साधु के चमत्कार से बच्चा भी आ सकता है। और अगर हाथ से सोना आ जाता है और घडियां आ जाती हैं, तो फिर क्या दिक्कत कि मेरा तबादला न हो और मुझे नौकरी न मिल जाए! 


गरीब समाज है, दुखीपीडित समाज है और जब तक लोग दुखी हैं, तब तक कोई न कोई चमत्कार से शोषण करेगा। सिर्फ ठीक संपन्न समाज हो, तो चमत्कार का असर कम हो जाएगा। जितनी तकलीफें होंगी, उतना चमत्कार का परिणाम होगा। फिर चमत्कार क्या है? एक तरफ तो ये दुखीपीडित लोग हैं, जिनका शोषण किया जा सकता है आसानी से। ये हाथ फैलाए खड़े हैं कि इनका शोषण करो! और इनका शोषण एक ही तरह से किया जा सकता है कि इनकी वासनाओं की तृप्ति की कोई आशा बंधे। तो वह आशा कैसे बंधे! 


अगर कोई बुद्ध, महावीर हो, तो वह तो आशा बंधाता नहीं। वह तो उल्टे इस आदमी को कहता है कि तुम्हारे दुखों का कारण तुम्हीं हो। तो तुम दुख के बाहर कैसे जाओगे, उसका मैं रास्ता बता सकता हूं। लेकिन जिन कारणों से तुम दुखी हो, उनकी पूर्ति करने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है। लेकिन बुद्ध, महावीर के प्रति ये आदमी आकर्षित नहीं होंगे। इनकी वासना ही वह नहीं है अभी। एक आदमी ताबीज निकाल देगा, उसके प्रति आकर्षित होंगे, क्योंकि वासना के लिए रास्ता मिलता है। और ताबीज निकालना ऐसा काम है कि सड़क पर मदारी कर रहा है उसको। जिसको हम दो पैसा देने को भी राजी नहीं हैं! और वही मदारी कल साधु बनकर खड़ा हो जाए, तो फिर हम उसके चरणों में सिर रखने को और सब कुछ करने को राजी हैं! 


तो गरीबी है, दुख है, और मूढ़ता है। और मूढ़ता यह है कि साधु कर रहा है तो चमत्कार और गैरसाधु कर रहा है तो मदारी। और जो वे कर रहे हैं, वह बिलकुल एक चीज है। इसमें जरा भी फर्क नहीं है। बल्कि मदारी ईमानदार है और यह साधु बेईमान है। क्योंकि मदारी बेचारा कह रहा है कि यह खेल है, यही उसकी भूल है। मूढों के बीच इतना साफ होना ठीक नहीं। इतना सच होना, यही उसकी गलती है। कह रहा है : यह खेल है, इसमें हाथ की तरकीब है, ताकि आप भी चाहें तो सीख सकते हैं और कर सकते हैं। बात खत्म हो गई। तो फिर कोई रस नहीं उसमें। हमें खुद में तो कोई रस है ही नहीं। जो हम ही कर सकते हैं, उसमें कोई बात ही न रह गई। 


यह मदारी बताने को तैयार है कि कैसे हो रहा है। इस मदारी की परीक्षा ली जाए इसके लिए तैयार है। वह आपका साधु न तो परीक्षा के लिए तैयार है, न किसी तरह की वैज्ञानिक शोध के लिए राजी है। लेकिन फिर कारण क्या है कि हम उसको इतना मूल्य देते हैं, मदारी को नहीं देते? क्योंकि मदारी से हमारी वासना की कोई पूर्ति की आशा नहीं बनती। ठीक है, हाथ का खेल है, बात खतम हो गई। अगर मैं हाथ के ही खेल से ताबीज निकाल रहा हूं तो बात खतम हो गई। ठीक है अब मुझसे क्या आपको मिलेगा और! कोई हाथ के खेल से बच्चा तो पैदा नहीं हो सकता; न नौकरी मिल सकती है; न धन आ सकता है : न मुकदमा जीता जा सकता है; कुछ नहीं हो सकता। न आपकी बीमारी दूर हो सकती है। हाथ का खेल तो हाथ का खेल है। ठीक है। मनोरंजन है। बात खत्म हो गई। 


जब मैं यह दावा करता हूं कि हाथ का खेल नहीं है, यह चमत्कार है, दिव्य शक्ति है, तब आपकी आशा बंधती है। फिर आपकी आशा का शोषण होता है। तो मैं मानता हूं कि जो भी साधु चमत्कार करते हैं, उनसे ज्यादा असाधु लोग खोजना कठिन हैं। क्योंकि असाधुता और क्या होगी इससे, कि लोगों का शोषण हो। और उनकी मूढ़ता का लाभ और धोखा...! एक भी चमत्कार ऐसा नहीं है जो मदारी नहीं करते। पर अंधेपन की सीमाएं नहीं हैं! 


सच तो यह है कि मदारी जो करते हैं वह आपके कोई साधु नहीं कर सकते। और जो आपके साधु करते हैं, वह दो कौड़ी का कोई भी मदारी करता है। और जो मदारी करते हैं, वह आपका कोई साधु नहीं कर सकता। फिर भी, इसके पीछे कोई कारण है, यह मैं समझा भी दूर तो मैं यह मानता नहीं कि मेरे समझाने से कोई चमत्कार में आस्था रखने वाले में कोई फर्क पड़ने वाला है। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि यह समझाने का सवाल ही नहीं है। उसकी जो वासना है, वह तकलीफ दे रही है। उसके भीतर जो वासनाएं हैं, उसका प्रश्न है, कि वह कैसे हल हो। 


अब यह जो आदमी है डाक्टर, जिसने मुझे लिखा, इसको मैं कितना ही समझाऊं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। क्योंकि समझाने में कोई तबादला तो होगा ही नहीं। समझाने का एक ही परिणाम होगा कि यह मुझे हाथ जोड़कर किसी और की तलाश करे। कोई उपाय नहीं होने वाला है। क्योंकि इस आदमी को कुछ मालूम नहीं है। बात खत्म हो गई। इतना ही इसका परिणाम होगा और कोई परिणाम होने वाला नहीं। ये किसी और की तलाश करेंगे। वे चमत्कार के तलाशी हैं। और हमारे मुल्क में ज्यादा होंगे, क्योंकि बहुत दुखी मुल्क है। बहुत पीडित मुल्क है, अति कष्ट में है। इतने कष्ट में यह शोषण आसान है। 


मगर मेरा मानना ऐसा है कि धर्म से चमत्कार का कोई लेनादेना नहीं है। क्योंकि धर्म का वस्तुत: आपकी वासना से कोई लेनादेना नहीं। धर्म तो इस बात की खोज है कि वह घड़ी कैसे आए, जब सब वासनाएं शांत हो जायें। कैसे वह क्षण आए, जब मेरे भीतर कोई चाह न रह जाए। क्योंकि तभी मैं शांत हो पाऊंगा। जब तक चाह है, तब तक अशांति  रहेगी। चाह ही अशांति है। 


तो धर्म की पूरी चेष्टा यह है कि कैसे आपके भीतर वह भाव बन जाए, जहां कोई चाह नहीं है, कोई मांग नहीं है। उस घड़ी ही अनुभव होगा जीवन की परम धन्यता का। तो चमत्कार से क्या लेनादेना है! धर्म का कोई लेनादेना चमत्कार से नहीं है। और सब चमत्कार मदारी के लिए हैं। जो नासमझ मदारी हैं, वे बेचारे सड्कों पर करते हैं। जो समझदार हैं, चालाक हैं, होशियार हैं, बेईमान हैं, वे साधु के वेश में कर रहे हैं। और इनको तोड़। भी नहीं जा सकता, वह भी मैं समझता हूं। इनके खिलाफ कुछ भी कहो, उससे कोई परिणाम नहीं होता। परिणाम उस आदमी पर हो सकता है, जो वासना के पीछे न हो; ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है। 


एक स्त्री मेरे पास आई। उसको बच्चा चाहिए। और उसको मैं समझा रहा हूं कि सब चमत्कार मदारीगिरी है? वह उदास हो गई बिलकुल। वह बोली कि सब मदारीगिरी है? उसको दुख हो रहा है मेरी बात सुनकर। मुझे खुद ही ऐसा अनुभव होने लगा कि मैं पाप कर रहा हूं जो उसको मैं समझा रहा हूं। हो बच्चा, न हो बच्चा, होने की आशा में तो वह इतनी दौडधूप कर रही है। तो मैंने कहा, 'तू मेरी बात की फिक्र मत कर, और तू वैसे भी नहीं करेगी। तू जा, और खोज कोई न कोई, पता नहीं कोई कर सके चमत्कार!' उसकी आंखों में ज्योति वापस लौट आई। उसने कहा, 'तो आप कहते हैं कि शायद कोई कर सके।


ये हमारे विश फुलफिलमेंट हैं। भीतर हमारी इच्छा है कि ऐसा हो। चमत्कार होने चाहिए, ऐसा हम चाहते हैं। इसलिए फिर कोई तैयार होकर बता देता है कि देखो, ये हो रहे हैं। और हम चाहते हैं कि वह इच्छा पूरी हो। 


और उन चमत्कारियों से कोई भी नहीं कहता, जब तुम राख ही निकालते हो, तो क्यों राख निकालते हो! कुछ और काम की चीजें निकालो, ताकि इस मुल्क में कुछ काम आये! क्या तुम ताबीज निकाल रहे हो! निकाल ही रहे हो और चमत्कार ही दिखा रहे हो, तो फिर इस मुल्क में कुछ और, बहुत चीजों की जरूरत है। और इससे क्या फर्क पडता है। जब राख निकल सकती है, ताबीज निकल सकती है, घड़ी निकल सकती है, तो जब एक तरकीब तुम्हारे हाथ आ गईतब कुछ भी निकल सकता है। 


अगर एक बूंद पानी को हम भाप बना सकते हैं, फिर हम पूरे सागर को भाप बना सकते हैं, नियम की बात है। जब नियम मेरे हाथ में आ गया कि शून्य से राख बन जाती है, तब क्या दिक्कत है, कोई दिक्कत नहीं ये चमत्कार दिखाने वाले इस मुल्क में दिखा रहे हैं हजारों साल से चमत्कार। और यह मुल्क रोज बीमारियों, गरीबी और दुख में ढकता जाता है और मरता जाता हैऔर ये दिखाते चले जाते हैं। इनके चमत्कार की वजह से गरीबी नहीं मिटती। मेरा मानना है, गरीबी की वजह से इनके चमत्कार चलते हैं। 

चल हंसा उस देश 

ओशो

संसार में रहते हुए जागरण की कला ही धर्म है

...तब तुम इस भांति हो जाते हो जैसे जल में कमल। होते हो जल में, लेकिन जल छूता नहीं। मजा भी तभी है। गरिमा भी तभी, गौरव भी तभी है। महिमा भी तभी है, जब तुम भीड़ में खड़े और अकेले हो जाओ। बाजार के शोरगुल में और ध्यान के फल लग जायें। जहां सब व्याघात हैं और सब विक्षेप हैं, वहां तुम्हारे भीतर समाधि की सुगंध आ जाये। क्योंकि हिमालय पर तो डर है, तुम अगर चले जाओ तो हिमालय की शांति धोखा दे सकती है। हिमालय शांत है, निश्चित शांत है। वहां बैठेबैठे तुम भी शांत हो जाओगे, लेकिन इसका पक्का पता नहीं चलेगा कि तुम शांत हुए कि हिमालय की शांति के कारण तुम शांत मालूम हुए। यह वातावरण के कारण है शांति या तुम्हारा मन बदला, इसका पता न चलेगा। यह तो पता तभी चलेगा जब तुम बाजार में वापिस आओगे।


और मैं तुमसे कहता हूं : हिमालय पर जो उलझ जाता है वह फिर बाजार में आने में डरने लगता है। डरता है इसलिए कि बाजार में आया कि खोया। और बाजार में आता है, तभी परीक्षा है, तभी कसौटी है। क्योंकि यहीं पता चलेगा। जहां खोने की सुविधा हो वहा न खोये, तो ही कुछ पाया। जहां खोने की सुविधा ही न हो वहा अगर न खोये तो कुछ भी नहीं पाया। अगर हिमालय के एकांत में अपनी गुफा में बैठ कर तुम्हें क्रोध न आये तो कुछ मूल्य है इसका? कोई गाली दे तब पता चलता है कि क्रोध आया या नहीं। कोई गाली ही नहीं दे रहा है, तुम अपनी गुफा में बैठे हो, कोई उकसा नहीं रहा है, कोई भड़का नहीं रहा है, कोई उत्तेजना नहीं है, कोई शोरगुल नहीं है, कोई उपद्रव नहीं हैऐसी घड़ी में अगर शांति लगने लगे तो यह शांति उधार है। यह हिमालय की शांति है जो तुममें झलकने लगी। यह तुम्हारी नहीं! तुम्हारी शांति की कसौटी तो बाजार में है।


इसलिए अष्टावक्र भागने के पक्ष में नहीं हैं, न मैं हूं; जागने के पक्ष में जरूर हैं। भागना कायरता है। भागने में भय है। और भय से कहां विजय है!

यह सूत्र समझो। पहला सूत्र :

क्‍व मोह: क्‍व च वा विश्व क्‍व ध्यानं क्‍व मुक्तता
सर्वसकल्पसीमायां विश्रांतस्य महात्मन:।।

'संपूर्ण संकल्पों के अंत होने पर विश्रांत हुए महात्मा के लिए कहां मोह है, कहां संसार है, कहां ध्यान है, कहां मुक्ति है?'


सुनो यह अपूर्व वचन। अष्टावक्र कहते हैं. जिसके संपूर्ण संकल्पों का अंत आ गया; जिसके मन में अब संकल्पविकल्प नहीं उठते, जिसके मन में अब क्या हो क्या न हो, इस तरह के कोई सपने जाल नहीं बुनते, जिसके मन में भविष्य की कोई धारणा नहीं पैदा होती, जिसकी कल्पना शांत हो गई है और जिसकी स्मृति भी सो गई, जो सिर्फ वर्तमान में जीता है।

सर्व संकल्प सीमाया विश्रांतस्य महात्मन:।

और इन सब संकल्पों का जहां सीमांत आ गया है, वहां जो विश्राम को उपलब्ध हो गया वही महात्मा है।

अष्टावक्र महागीता 

ओशो