Wednesday, December 26, 2018

मन कभी-कभी निर्लिप्त सा मालूम देता है, लेकिन क्षण भर। और उस क्षण आनंद और प्रसन्नता का अनुभव होता है। थोड़ी कृपा और करो, ताकि मैं निर्लिप्त हो जाऊं; क्योंकि क्षण भर की निर्लिप्तता स्वप्नवत है।




पहल बात, लोभ से न भरो। ध्यान में लोभ को मत लाओ, नहीं तो ध्यान खो जाएगा; जो क्षणभर मिल रहा है, वह भी खो जाएगा। अगर क्षण भर में मिल रहा है जो, उसे भी गंवाना हो, तो लोभ को ले आना।

 
यह मैं यहां रोज देखता हूं। जब ध्यान की घटना शुरू होती है, स्वभावतः लोभ जगता है। लोभ तो पड़ा है भीतर। लोभ कोई धन का ही थोड़े होता है, ध्यान का भी होता है। लोभ तो लोभ है; किस चीज का इससे कोई संबंध नहीं है।

 
लोभ का मतलब हैः और ज्यादा। धन हो, तो और ज्यादा। पद हो, तो और ज्यादा। प्रतिष्ठा हो, तो और ज्यादा। जो भी हो, वह और ज्यादा। यही लोभ पड़ा है तुम्हारी मटकी में। इस लोभ को बाहर विदा करो। अन्यथा जब ध्यान आएगा, यह लोभ कहेगाऔर ज्यादा। क्षणभर में क्या होगा! शाश्वत चाहिए।

 
अब थोड़ा समझो। एक बार में एक ही क्षण तो मिलता है। दो क्षण तो साथ कभी मिलते नहीं। अगर एक क्षण में भी शांत होना आ गया, तो और क्या चाहिए! सारा जीवन शांत हो जाएगा। एक क्षण में शांत होना आ गया, तो तुम्हारे हाथ में कला आ गई। मगर यह लोभ कहेगा कि एक क्षण की शांति से क्या होता है!

 
एक-एक कदम चल कर आदमी हजार मील की यात्रा पूरी कर लेता है। कोई हजारों कदम एक साथ तो चल भी नहीं सकता। दो कदम भी एक साथ नहीं चल सकते। चलते तो तब हो, जब एक कदम चलते हो।

 
एक क्षण मिलता है एक बार में। जब एक चला जाता है हाथ से, तब दूसरा आता है। तुम्हें एक क्षण को ध्यान में रंगने की कला आ गई, धन्यभागी हो। अब लोभ को मत जगाओ, नहीं तो इस क्षण को भी नष्ट कर देगा।

 
अब तुम कहते होः क्षण भर की निर्लिप्तता स्वप्नवत है। यह तुम्हारा लोभ कह रहा है। तुम्हारी मांग पैदा होने लगी।

 
जब ध्यान की घटनी शुरू होती है, तो पहले तो क्षण में ही घटेगी; क्षण का ही द्वार खुलेगा; क्षण के ही झरोखे से पहले झांकोगे।

 
अब जब क्षण का झरोखा खुले, तो दो बातें संभव हैं। एक तो यह कि तुम धन्यवाद दो परमात्मा कोकि हे प्रभु, मैं इतना भी योग्य न था, तूने क्षण भर को खिड़की खोली, इतना भी बहुत है। मेरी पात्रता इतनी भी न थी। यह तेरे प्रसाद से ही हुआ होगा; यह तेरी अनुकंपा से हुआ होगा, क्योंकि तू रहीम है, रहमान है, इसलिए हुआ होगा। तू करुणावान है, इसलिए हुआ होगा। मेरी योग्यता से तो कुछ भी नहीं हुआ। एक तो यह भाव है। यह भक्त का भाव है।

 
भक्त कहता है कि नहीं, नहीं, मैं भरोसा नहीं कर पाता कि तू और ध्यान की झलक मुझे देगा! मैं तो पापी; मैं तो दीन-हीन; मैं तो बुरे से बुरा। भला मुझमें क्या है! मैं तो बुरा खोजने जाता हूं, तो मुझसे बुरा मुझे कोई नहीं मिलता। और भला खोजने जाता हूं, तो सभी मुझसे भले मुझे मिलते हैं। मुझ पर तेरी कृपा! मुझ अंतिम पर तेरी कृपा? जरूर तेरा प्रेम है, तेरी अनुकम्पा है। अकारण तू मुझ पर बरस रहा है।

 
यह अगर भाव रहे, तो ध्यान बढ़ेगा। गहरा होगा, क्योंकि इसमें लोभ नहीं है। इसमें विनय है; इसमें निर्वासना है। जितना मिला, उसके लिए धन्यवाद है। उतना ही क्या कम है! उसे स्वप्नवत मत कहो।
क्षण भर भी जो ध्यान मिलता है, वह भी स्वप्न नहीं। और सौ वर्ष की भी जो जिंदगी है, वह भी स्वप्न है। ध्यान तो सत्य ही है क्षण भर मिले, कि शाश्वत मिले। और जिंदगी तो स्वप्न ही है क्षण भर रहे, कि सदा रहे; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

 
समय की मात्रा से सत्य और असत्य का कोई संबंध नहीं है।
 
अनुग्रह को जगाओ; लोभ को विदा करो।

नहीं साँझ नहीं भोर 

ओशो

दान और दान में फर्क

दान मैत्री और प्रेम से निकलता है तो आपको पता भी नहीं चलता है कि आपने दान किया। यह आपको स्मरण नहीं आती कि आपने दान किया। बल्कि जिस आदमी दान स्वीकार किया, आप उसके प्रति अनुगृहीत होते हैं कि उसने स्वीकार कर लिया। लेकिन अब दान का मैं विरोध करता हूं, जब वह दान दिया जाता है तो अनुगृहीत वह होता है जिसने लिया। और देने वाला ऊपर होता है। और देने वाले को पूरा बोध है कि मैंने दिया, और देने का पूरा रस है और आनंद। लेकिन प्रेम से जो दान प्रकट होता है वह इतना सहज है कि पता नहीं चलता कि दान मैंने किया। और जिसने लिया है, वह नीचा नहीं होता, वह ऊंचा हो जाता है। बल्कि अनुगृहीत देने वाला होता है, लेने वाला नहीं। इन दोनों में बुनियादी फर्क है। दान हम दोनों के लिए शब्द का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन दान उपयोग होता रहा है उसी तरह के दान के लिए, जिसका मैंने विरोध किया। प्रेम से जो दान प्रकट होगा, वह तो दान है ही।

प्रश्नः अगर कोई आदमी भूखा मरता हो और उसको खाना खिला दिया तो यह कैसा रहा?


अगर आपको ऐसा खयाल आए कि मैंने खाना खिला दिया तो कोई बड़ा काम कर लिया, तो यह दान पाप होगा। खयाल तो यह आना चाहिए कि कितनी मजबूरी है, कितनी कठिनाई है! अकाल पड़ जाता है, हम कुछ भी नहीं कर पाते। हम दो रोटी दे पाते हैं। तो दुखी होना चाहिए कि दो रोटी देने से कुछ हो गया है क्या? अगर प्रेम से आप जाएंगे अकाल में काम करने तो आप पीड़ित अनुभव करेंगे कि कितना काम हम कर पा रहे हैं, जो कुछ भी नहीं है। होना तो यह चाहिए कि अकाल संभव न हो, एक आदमी भूखा न मरे। हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। आपकी पीड़ा यह होगी कि सब कुछ करते हुए हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन वह जो दान देने वाला है वह वहां से अकड़ कर लौटेगा कि मैंने इतने लोगों को खाना खिलाया था।


तो दान का बोध ही गलत है। प्रेम से दान निकलता है, वह बात ही अलग है। वह इतना ही सहज है कि उसका कभी भी नहीं चलता। उसकी कोई रेखा ही नहीं छूट जाती कुछ। बल्कि प्रेम से दान निकलता है, हमेशा प्रेमी को लगता है कि कुछ कर पाया।



एक मां से पूछें कि उसने अपने बेटे के लिए क्या किया। वह कहेगी मैं कुछ भी नहीं कर पाई। जहां पढ़ाना था, पढ़ा नहीं पाई, जो खाना खिलाना था वह खिला नहीं पाई, जो कपड़ा पहनाना था वह मैं नहीं पहना पाई। मैं लड़के के लिए कुछ भी नहीं कर पाई। और एक संस्था के सेक्रेटरी से पूछें कि उसने संस्था के लिए क्या-क्या किया? तो वह हजार फेहरिस्त बनाए हुए खड़ा है कि हमने यह किया, हमने यह किया, हमने यह किया। जो उसने नहीं किया उसका भी दावा है कि हमने किया। और मां ने जो किया भी, उसकी भी वह दावेदार नहीं है। वह कहेगी कि मैं कुछ भी नहीं कर पाई।


तो प्रेम के पीछे कभी भी यह भाव नहीं छूट जाएगा कि मैंने कुछ किया। और जिस दान में यह भाव रहता है कि मैंने कुछ किया, उसको मैं पाप कहता हूं। वह अहंकार का ही पोषण है।


तो प्रेम से जो दान निकलेगा, उसकी तो बात ही और है। उसको तो दान कहने की जरूरत ही नहीं है। तो वह निकलता ही रहेगा। प्रेम तो स्वयं ही दान है। लेकिन बिलकुल ही अन्यथा बात है। और यह दान-धर्म की हम इतनी प्रशंसा करते हैं कि दान दो तो पुण्य होगा, दान दो तो स्वर्ग मिलेगा, दान दो तो भगवान तक पहुंच जाओगे, यह शरारत की बात है। इससे कोई मतलब नहीं है। यह उस आदमी के अहंकार का शोषण है। और इस भांति जो दान दे रहा है वह दान-वान कुछ नहीं दे रहा है। वह फिर शोषण कर रहा है, वह अपने स्वार्थ का फिर इंतजाम कर रहा है। आपकी दीनता-दरिद्रता उसे कहीं भी नहीं छू रही है। बल्कि आप दीन और दरिद्र हैं, इससे वह खुश है। क्योंकि उसे दानी बनने का एक अवसर आप जुटा रहे हैं। सड़क पर एक भिखारी आपसे दो पैसे मांगे, अगर आप अकेले हैं तो आप इनकार कर देंगे, अगर चार आदमी हैं तो आप दे देंगे। क्योंकि चार आदमी देखते हैं कि दो पैसा दिया। चार आदमी के सामने भिखारी को इनकार करना कि नहीं देंगे आपके अहंकार को चोट लगती है। अकेले में आप दुत्कार देंगे। इसलिए भिखारी प्रतीक्षा करता है, अकेले आदमी से नहीं मांगता है, चार आदमी हों तो पकड़ लेता है। क्योंकि इन तीन के सामने आपके अहंकार का उपयोग करता है। अब जरा मुश्किल है, इनकार करना।


मुश्किल यह है कि जब आप दे रहे हैं तब आप इसलिए दे रहे हैं कि चार लोग देख लें, चार लोगों को पता चल जाए और अगर यह आपकी कंडीशन नहीं है तो उसको मैं दान नहीं कह रहा हूं, उसको मैं प्रेम कह रहा हूं। फिर तो आप यह चाहेंगे कि कोई देख न ले। कोई क्या कहेगा कि दो पैसे भी नहीं हैं एक आदमी के पास? कोई कहेगा क्या? कि एक आदमी ने भीख मांगी और इस आदमी ने दो पैसे दिए। तब आप डरेंगे कि कोई देख न ले, अकेले में चुप-चाप दे देंगे। किसी को कहना मत। पता न चल जाए किसी को। मैं तो कुछ कर ही नहीं पाया, तुम मांग रहे हो। दो पैसे मैं देता हूं यह देना हुआ। और जनरल कंडीशन यह है कि आप प्रतीक्षा कर रहे हैं कि चार लोग जान लें, या अखबार में खबर छप जाए कि इस आदमी ने इतना दिया है। यह मंदिर का पत्थर लग जाए कि इस आदमी ने इतना दिया है, यह नाम खुद जाए। नहीं, यह बिलकुल जनरल कंडीशन है। दान देने वाले के माइंड की यह स्थिति है। तब तो दान चल रहा है हजारों साल से और दुनिया जरा भी कुछ अच्छी नहीं बन पाती।


तो मेरा कहना यह है कि प्रेम बढ़ाना चाहिए, दान इसलिए की बकवास बंद होनी चाहिए। उस प्रेम से जो दान फलित होगा, वह बात ही और है। उसमें फर्क इतना ही है कि जैसे एक नकली फूल आप ले आए बाजार से और असली फल पैदा हुए। उतना ही फर्क है उन दोनों दान में। तो एक की मैं प्रशंसा करता हूं और एक की निंदा करता हूं। तो उनके बीच का फासला बहुत है, फासला बहुत है।

जीवन अलोक 

ओशो

किन्हीं ने पूछा हैः जब बुद्धि असफल हो जाती है तो क्या हम श्रद्धा का सहारा न लें।




श्रद्धा भी बुद्धि है। श्रद्धा बौद्धिक होती है। हम बड़ी मुश्किल में हैं दुनिया में। हम समझते हैं अश्रद्धा बौद्धिक होती है और श्रद्धा बौद्धिक नहीं होती। अश्रद्धा भी बौद्धिक होती है, श्रद्धा भी बौद्धिक होती है। किससे श्रद्धा करते हैं? जो मानता है कि मैं ईश्वर को मानता हूं, वह किस चीज से मान रहा है ईश्वर को? बुद्धि से मान रहा है। जो कहता है, मैं ईश्वर को नहीं मानता, वह किससे नहीं मान रहा है? वह भी बुद्धि से नहीं मान रहा है। धार्मिक लोगों ने एक उलझाव पैदा कर दिया है। वे यह सोचते हैं कि श्रद्धा तो बौद्धिक नहीं है और अश्रद्धा बौद्धिक है। अश्रद्धा भी बौद्धिक है, श्रद्धा भी बौद्धिक है। अगर आपकी बुद्धि पूरी असफल हो जाए, आप भगवान को उपलब्ध हो जाएंगे। बुद्धि ही बाधा है। अगर आपकी बुद्धि बिलकुल असफल हो जाए खोजने में और यह कह दे कि मेरी बुद्धि कुछ भी नहीं खोजती, तो न वह बुद्धि श्रद्धा करेगी, न अश्रद्धा; क्योंकि श्रद्धा भी खोज है, अश्रद्धा भी खोज है।

 जो यह कह रहा है, ईश्वर नहीं है, उसने भी कुछ खोज लिया। जो यह कह रहा है, ईश्वर है, उसने भी कुछ खोज लिया। दोनों की बुद्धि सफल हो गई।

अगर बुद्धि टोटल फेल्योर हो जाए तो आप सत्य को उपलब्ध हो जाएंगे। अगर बुद्धि यह कह दे कि मैं कुछ भी नहीं खोज पा रही, और बुद्धि पर से आस्था उठ जाए, और बुद्धि से आप बिलकुल निराश हो जाएं, तो आपके भीतर प्रज्ञा का जागरण हो जाएगा। जब तक बुद्धि को आस्था बनी है--चाहे श्रद्धा में, चाहे अश्रद्धा में, तब तक प्रज्ञा का, तब तक इंट्यूशन का जागरण नहीं होगा। इंटेलिजेंस बिलकुल असफल हो जाए और आपकी आस्था उस तरफ से बिलकुल उठ जाए कि बुद्धि से कुछ भी न होगा, तो आपके भीतर एक नया द्वार खुल जाएगा जिसको इंट्यूशन कहते हैं, जिसको प्रज्ञा कहते हैं।
 
बुद्धि की असफलता बड़ा सौभाग्य है। बुद्धि असफल हो जाए, इससे बड़ी और कोई बात नहीं है।

जीवन अलोक 

ओशो

विचार-शून्य होकर स्मरण किसका करें? स्मरण करें तो विचार-शून्य कैसे हो सकें?




शून्य होकर किसी का स्मरण नहीं करना है। स्मरण विचार ही है। स्मरण तो हम चैबीस घंटे कर रहे हैं किसी न किसी का, इसलिए स्व का विस्मरण हो गया है। या तो हम धन का स्मरण कर रहे हैं, मित्रों का स्मरण कर रहे हैं। अगर मित्र और धन छूटे तो भगवान का स्मरण कर रहे हैं, लेकिन हम किसी न किसी के स्मरण से भरे हैं। इसलिए स्व का विस्मरण हो गया है। अगर समस्त पर का स्मरण छूट जाए तो स्व का स्मरण आ जाएगा। स्मरण किसी का करना नहीं है। स्मरण कर रहे हैं, यही दिक्कत है। स्मरण छोड़ देना है समस्त का।

सब्स्टीट्यूट नहीं करना है। दुकान का स्मरण करते थे तो उसे छोड़ा तो अरिहंत-अरिहंत का स्मरण करने लगे। वह सब्स्टीट्यूट हो गया। पहले भी किसी पर का स्मरण कर रहे थे, अब भी पर का स्मरण कर रहे हैं। समस्त पर के स्मरण के शून्य हो जाने पर स्व का जो विस्मरण हो गया है उसका स्मरण हो जाता है। स्मरण करना नहीं होता, स्मरण हो जाता है। कुछ दोहराना नहीं होता, कुछ दिख जाता है।


शून्य का अर्थ किसी का स्मरण नहीं, समस्त स्मरण का विसर्जन है। हमने अपने को खोया नहीं है, हमने केवल अपने को विस्मरण किया है। हम अपने को खो तो सकते ही नहीं। स्वरूप को खोया नहीं जा सकता, केवल विस्मरण किया है। और विस्मरण क्यों किया है? विस्मरण इसलिए किया है कि दूसरी बातों के स्मरण ने चित्त को भर दिया है। मैं दूसरी चीजों से भरा हुआ हूं। दूसरे शब्दों से, विचारों से भरा हुआ हूं। अगर वे सारे शब्द, सब विचार और सारा स्मरण विसर्जित हो जाए तो स्व का बोध उत्पन्न हो जाएगा। स्मरण नहीं करना है, विस्मरण करना है।


श्री रमण से किसी ने पूछा था आकर कि क्या सीखूं कि मुझे प्रभु उपलब्ध हो जाए? श्री रमण ने कहाः सीखना नहीं है, अनलर्न करना है। सीखना नहीं है, भूलना है। बहुत स्मरण है, बही बाधा है। समस्त स्मरण छूट जाए, स्व-स्मरण जाग्रत हो जाता है।


जीवन आलोक 

ओशो 

पूछा हैः श्रद्धा के बिना शास्त्र का अध्ययन नहीं, अध्ययन के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना आत्मा का अनुभव नहीं होगा।


श्रद्धा के बिना शास्त्र का अध्ययन क्यों नहीं होगा?’

हमारी धारणा ऐसी है कि या तो हम श्रद्धा करेंगे या अश्रद्धा करेंगे। हमारी धारणा ऐसी है कि या तो हम किसी को प्रेम करेंगे या घृणा करेंगे। तटस्थ हम हो ही नहीं सकते। जो श्रद्धा से शास्त्र का अध्ययन करेगा वह भी गलत, जो अश्रद्धा से शास्त्र का अध्ययन करेगा वह भी गलत है। शास्त्र का ध्यान तटस्थ होकर करना होगा। तटस्थ होकर ही कोई अध्ययन हो सकता है। श्रद्धा का अर्थ हैः आप पक्ष में पहले से मान कर बैठ गए, पक्षपात से भरे हैं। अश्रद्धा का अर्थ हैः आप पहले से ही विपरीत मान कर बैठ गए, आप पक्षपात से भरे हैं। पक्षपातपूर्ण चित्त अध्ययन क्या करेगा? पक्षपातपूर्ण चित्त तो पहले से पक्ष तय कर लिया। वह शास्त्र में अपने पक्ष के समर्थन में दलीलें खोज लेगा और कुछ नहीं करेगा। पक्षपात शून्य होकर ही कोई अध्ययन कर सकता है। इसलिए मुझे श्रद्धा भी व्यर्थ मालूम होती है, अश्रद्धा भी व्यर्थ। असल में श्रद्धा अश्रद्धा दोनों ही अश्रद्धाएं हैं।


एक आदमी ईश्वर पर श्रद्धा करता है, एक आदमी ईश्वर पर अश्रद्धा करता है। असल में अगर हम गौर से देखें, तो उनमें एक ईश्वर के होने पर श्रद्धा करता है, एक ईश्वर के न होने पर श्रद्धा करता है। वे दोनों ही श्रद्धाएं हैं। अश्रद्धा भी श्रद्धा ही है--विपरीत श्रद्धा है। इसलिए न तो श्रद्धा और न अश्रद्धा। पक्षपात शून्य होकर ही कोई सम्यक अध्ययन कर सकता है। हमारे इस जगत में वैसा सम्यक अध्ययन बहुत कम लोग करते हैं। परिणाम में भी कुछ उपलब्ध नहीं होता।


दूसरी बात उन्होंने कहीः शास्त्र के अध्ययन के बिना ज्ञान नहीं।


जिन्होंने भी पूछा है, वे शायद पांडित्य को ज्ञान समझ रहे हैं। शास्त्र के अध्ययन से पांडित्य उपलब्ध होगा, ज्ञान उपलब्ध नहीं होगा। ज्ञान उपलब्ध नहीं करना है, ज्ञान तो हमारा स्वरूप है। शास्त्र से स्वरूप का कैसे पता चलेगा? और अगर शास्त्र से स्वरूप का पता चल जाता, तो शास्त्र अध्ययन करवा देना बहुत कठिन बात नहीं है, आत्म-ज्ञान बहुत आसान हो जाता। दुनिया में ऐसे लोग हुए जिन्होंने कोई शास्त्र नहीं पढ़े और आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हुए। रामकृष्ण थे या ईसा थे। ये कुछ पढ़े-लिखे लोग नहीं थे, लेकिन इन्हें ज्ञान उत्पन्न हुआ। और दुनिया में ऐसे पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ है, जिनका चित्त पूरा शास्त्र से भरा हुआ है और उन्हें आत्म-ज्ञान का कोई पता भी नहीं है।


शास्त्र के अध्ययन से आत्म-ज्ञान का कोई संबंध नहीं है। आत्म-ज्ञान का संबंध साधना से है, अध्ययन से नहीं है। आत्म-ज्ञान का संबंध...और ज्ञान की नहीं कह रहा--इंजीनियरिंग पढ़नी हो, डाक्टरी पढ़नी हो, तो शास्त्र-ज्ञान से हो जाएगा। पर के संबंध में कोई सूचना पानी हो, शास्त्र से हो जाएगी। स्व के संबंध में कोई बोध शास्त्र से नहीं हो सकता। शास्त्र तो विचार को परिपक्व कर देंगे। आत्म-ज्ञान तो विचार के छूटने से होगा। शास्त्र तो बुद्धि को एक विशिष्ट तर्क से भर देंगे।


जैसे सोवियत रूस है, उन्होंने चालीस वर्षों से अपने बच्चों को ईश्वर और आत्मा विरोधी शास्त्र पढ़ाए। चालीस वर्षों में सोवियत रूस के बीस करोड़ लोग--ईश्वर और आत्मा नहीं है, ऐसा उनके ज्ञान हो गया। चालीस वर्ष के प्रचार प्रोपेगेंडा ने सोवियत रूस में यह स्थिति पैदा कर दी कि बीस करोड़ लोगों को यह ज्ञान हो गया कि आत्मा और ईश्वर नहीं है। इसको ज्ञान कहिएगा? इसको ज्ञान नहीं कह सकते। यह केवल विचार का परिपक्व कर देना हो गया एक पक्ष में।


और आप सोचते हैं, आपको आत्मा का ज्ञान हो गया है, तो आप भी गलती में हैं। आपका मुल्क भी पांच हजार वर्ष से प्रचार कर रहा है कि आत्मा है, आत्मा है, ईश्वर है। उस प्रोपेगेंडा से आप प्रभावित हैं। एक प्रोपेगेंडा से वे प्रभावित हैं। एक प्रचार उनके चित्त में बैठ गया, एक प्रचार आपके चित्त में बैठा है। दोनों ही प्रचार हैं। प्रचार से एक विचार परिपक्व हो जाता है, अनुभव नहीं होता। मेरा मानना है, अगर उनको सत्य का अनुभव करना है तो अपना प्रचार छोड़ देना पड़ेगा। आत्म-सत्य का अनुभव करना है तो अपना प्रचार छोड़ना पड़ेगा। प्रचार प्रभावित है हमारे ऊपर। सब बाहर के प्रभाव छोड़ देने होंगे। उस निष्प्रभाव स्थिति में जो स्वयं में भीतर है उसका जागरण होता है। प्रभाव नहीं, क्योंकि प्रभाव तो बाह्य है। प्रभाव का अभाव, उसमें स्वयं का बोध अनुभव होता है।


आत्म-ज्ञान शास्त्र से नहीं, स्वयं से उत्पन्न होता है। आत्म-ज्ञान शब्द से नहीं, निःशब्द से उत्पन्न होता है। आत्म-ज्ञान विचार से नहीं, निर्विचार से उत्पन्न होता है। आत्म-ज्ञान विकल्पों के इकट्ठा करने से नहीं, निर्विकल्प समाधि में, समाधान में उत्पन्न होता है। इसलिए शास्त्र आत्म-ज्ञान नहीं देता, स्वयं का बोध ही, स्वयं के प्रति जागना ही आत्म-ज्ञान देता है। मैं समझता हंू मेरी बात समझ में आई होगी।

जीवन आलोक 

ओशो