Friday, March 22, 2019

मैं उदास क्यों हूं? ऐसे तो सब है--सुख-सुविधा फिर भी उदासी है कि घटती नहीं वरन् बढ़ती ही जाती है। क्या ऐसे ही, व्यर्थ ही समाप्त हो जाना मेरी नियति है?


उदास हो तो अकारण नहीं हो सकते। तुम्हारे जीवन-दर्शन में कहीं भूल होगी। तुम्हारा जीवन-दर्शन उदासी का होगा। तुम्हें चाहे सचेतन रूप से पता हो या न हो, मगर तुम्हारी जीवन को जीने की शैली स्वस्थ नहीं होगी, अस्वस्थ होगी। तुम जीवन को ऐसे ढो रहे होओगे जैसे कोई बोझ को ढोता है।


मैंने सुना है, एक संन्यासी हिमालय की यात्रा पर गया था। भरी दोपहर, पहाड़ की ऊंची चढ़ाई, सीधी चढ़ाई, पसीना-पसीना, थका-मांदा हांफता हुआ अपने छोटे-से बिस्तर को कंधे पर ढोता हुआ चढ़ रहा है। उसके सामने ही एक छोटी-सी लड़की, पहाड़ी लड़की अपने भाई को कंधे पर बैठाए हुए चढ़ रही है। वह भी लथपथ है पसीने से। वह भी हांफ रही है। संन्यासी सिर्फ सहानुभूति में उससे बोला, बेटी तारे ऊपर बड़ा बोझ होगा। उस लड़की ने, उस पहाड़ी लड़की ने, उस भोली लड़की ने आंख उठाकर संन्यासी की तरफ देखा और कहा, स्वामी जी! बोझ तो आप लिए हैं यह मेरा छोटा भाई है।

बोझ में और छोटे भाई में कुछ फर्क होता है। तराजू पर तो नहीं होगा। तराजू को क्या पता कि कौन छोटा भाई है और कौन बिस्तर है! तराजू पर तो यह भी हो सकता है कि छोटा भाई ज्यादा वजनी रहा हो। साधु का बंडल था, बहुत वजनी हो भी नहीं सकता। पहाड़ी बच्चा था, वजनी होगा। तराजू तो शायद कहे कि बच्चे में ज्यादा वजन है। तराजू के अपने ढंग होते हैं मगर हृदय के तराजू का तर्क और है।

उस लड़की ने जो बात कही, संन्यासी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है--उनका नाम था भवानी दयाल--उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मुझे ऐसी चोट पड़ी कि इस छोटी-सी बात को मैं अब तक न देख पाया? इस भोली-भाली लड़की ने कितनी बड़ी बात कह दी! छोटी-सी बात में कितनी बड़ी बात कह दी! छोटे भाई में बोझ नहीं होगा। जहां प्रेम है वहां जीवन निर्भार होता है।

तुम जरूर अप्रेम के ढंग से जी रहे हो। तुम्हारा जीवन-दर्शन भ्रांत है इसलिए तुम उदास हो। हालांकि तुमने जब प्रश्न पूछा होगा तो सोचा होगा कि मैं तुम्हें कुछ ऐसे उत्तर दूंगा जिनसे सांत्वना मिलेगी। कि मैं कहूंगा कि नहीं--पिछले जन्मों में कुछ भूल-चूक हो गयी है, उसका फल तो पाना पड़ेगा। अब निपटा ही लो। किसी तरह बोझ है, ढो ही लो, खींच ही लो।

राहतें मिलती हैं ऐसी बातों से। क्योंकि अब पिछले जन्म का क्या किया जा सकता है? जो हुआ सो हुआ। किसी तरह बोझ है, ढो लो। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि पिछले जन्म की भूल है जिसका तुम फल अब भोग रहे हो। अभी तुम कहीं भूल कर रहे हो, अभी तुम्हारे जीवन के दृष्टिकोण में कहीं भूल है। पिछले जन्मों पर टालकर हमने खूब तरकीबें निकाल लीं। असल में पिछले जन्म पर टाल दो तो फिर करने को कुछ बचता नहीं, फिर तुम जैसे हो सो हो। अब पिछला जन्म फिर से तो लाया नहीं जा सकता। जो हो चुका सो हो चुका। किए को अनकिया किया नहीं सकता। अब तो ढोना ही होगा, खींचना ही होगा, उदास रहना ही होगा।

नहीं, उदास रहने की कोई भी जरूरत नहीं है, कोई अनिवार्यता नहीं है। मैं तुमसे यह बात कह दूं कि परमात्मा के जगत् में उधारी नहीं चलती। पिछले जन्म में कुछ गलती की होगी, पिछले जन्म में भोग ली होगी। परमात्मा कल के लिए हिसाब नहीं रखता। वह ऐसा नहीं कि आज नगद, कल उधार। नगद ही नगद है, आज भी नगद और कल भी नगद। आग में हाथ डालोगे, अभी जलेगा कि अगले जन्म में जलेगा पानी पियोगे, प्यास अभी बुझेगी कि अगले जन्म में बुझेगी? इतनी देर नहीं लगती प्यास के बुझने में न हाथ के जलने में।

मेरे देखे जब भी तुम शुभ करते हो तत्क्षण तुम पर आनंद की वर्षा हो जाती है। तत्क्षण! देर-अबेर नहीं होती। तुमने कहावत सुनी है कि उसके जगत् में देर है, अंधेर नहीं। मैं तुमसे कहता हूं कि देर हुई तो अंधेर हो जाएगा। न देर है न अंधेर है, सब नगद है।


प्रेम-रंग-रस ओढ़ चुंदरिया

ओशो

Monday, March 18, 2019

एक मित्र ने पूछा कि आप गांधी जी की अहिंसा में विश्वास नहीं करते हैं क्या? और यदि अहिंसा में विश्वास नहीं करते हैं गांधी की, तो क्या आपका विश्वास हिंसा में है?




मैं गांधी जी की अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं क्योंकि मैं अहिंसा के पक्ष में हूं। लेकिन उसको मैं अहिंसा नहीं मानता इसलिए मैं पक्ष में नहीं हूं। गांधी जी की अहिंसा चाहे गांधी जी को पता हो या न हो, हिंसा करेगी। यह हिंसा बड़ी सूक्ष्म है। एक आदमी को मार डालना भी हिंसा है और एक आदमी को अपनी इच्छा के अनुकूल ढालना भी हिंसा है। जब एक गुरु दस-पच्चीस शिष्यों की भीड़ इकट्ठी करके उनको ढालने की कोशिश करता है अपने जैसा बनाने की, जैसे कपड़े मैं पहनता हूं वैसे कपड़े पहनो, जब मैं उठता हूं ब्रह्ममुहूर्त में तब तुम उठो, जो मैं करता हूं वही तुम करो--तो हमें पता नहीं है, यह चित्त बड़ी सूक्ष्म हिंसा की बात सोच रहा है। दूसरे आदमी को बदलने की चेष्टा में, दूसरे आदमी को अपने जैसा बनाने की चेष्टा में भी आदमी हिंसा करता है। जब एक बाप अपने बेटे को अपने जैसा बनाने की कोशिश करता है तो बाप को पता है, यह हिंसा है। जब बाप बेटे से कहता है कि तू मेरे जैसा बनना, तो दो बातें काम कर रही हैं। एक तो बाप का अहंकार और दूसरा कि मेरे बेटे को मैं अपने जैसा बना कर छोडूंगा। यह प्रेम नहीं है। सारे गुरु लोगों को अपने जैसा बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। उस प्रयत्न में व्यक्ति हिंसा करता है। जो आदमी अहिंसक है वह कहता है कि तुम अपने ही जैसा बन जाओ, बस यही काफी है, मेरे जैसे बनने की कोई जरूरत नहीं है।


गांधी जी की अहिंसा का जो प्रभाव इस देश पर पड़ा वह इसलिए नहीं कि वे लोगों को अहिंसा ठीक मालूम पड़ी। लोग हजारों साल के कायर हैं और कायरों को यह बात समझ में पड़ गई है कि ठीक है, इसमें मरने-मारने का डर नहीं है, हम आगे जा सकते हैं। 

लेकिन तिलक गांधी जी की अहिंसा से प्रभावित नहीं हो सके, सुभाष भी प्रभावित नहीं हो सके। भगतसिंह फांसी पर लटक गया और हिंदुस्तान में एक पत्थर नहीं फेंका गया उसके विरोध में! आखिर क्यों? उसका कुल कारण यह था कि हिंदुस्तान जन्मजात कायरता में पोषित हुआ है।

भगतसिंह फांसी पर लटक रहे थे, गांधी जी वाइसराय से समझौता कर रहे थे और उस समझौते में हिंदुस्तान के लोगों को आशा थी कि शायद भगतसिंह बचा लिया जाएगा, लेकिन गांधी जी ने एक शर्त रखी कि मेरे साथ जो समझौता हो रहा है उस समझौते के आधार पर सारे कैदी छोड़ दिए जाएंगे लेकिन सिर्फ वे ही कैदी जो अहिंसात्मक ढंग के कैदी होंगे। उसमें भगतसिंह नहीं बच सके, क्योंकि उसमें एक शर्त जुड़ी हुई थी कि अहिंसात्मक कैदी ही सिर्फ छोड़े जाएंगे। भगतसिंह को फांसी लग गई।

जिस दिन हिंदुस्तान में भगतसिंह को फांसी हुई उस दिन हिंदुस्तान की जवानी को भी फांसी लग गई। उसी दिन हिंदुस्तान को इतना बड़ा धक्का लगा जिसका कोई हिसाब नहीं। गांधी की भीख के साथ हिंदुस्तान का बुढ़ापा जीता, भगतसिंह की मौत के साथ हिंदुस्तान की जवानी मरी। क्या भारतीय युवा पीढ़ी ने कभी इस पर सोचा है?

 

मैंने एक मजाक सुना है। मैंने सुना है, एक युवक एक युवती से प्रेम करता था और उसके प्रेम में दीवाना था, लेकिन इतना कमजोर था कि हिम्मत भी नहीं जुटा पाता था कि विवाह करके उस लड़की को घर ले आए, क्योंकि लड़की का बाप राजी नहीं था। फिर किसी समझदार ज्ञानी ने उसे सलाह दी कि अहिंसात्मक सत्याग्रह क्यों नहीं करता? कमजोर, कायर, वह डरता था। उसको यह बात जंच गई। कायरों को अहिंसा की बात एकदम जंच जाती है--इसलिए नहीं कि अहिंसा ठीक है, बल्कि कायर इतने कमजोर होते हैं कि कुछ और नहीं कर सकते।



उस युवक को किसी ने सलाह दी, तू पागल है, तेरे से कुछ और नहीं बन सकेगा, अहिंसात्मक सत्याग्रह कर दे। वह जाकर उस लड़की के घर के सामने बिस्तर लगा कर बैठ गया और कहा कि मैं भूखा मर जाऊंगा, आमरण अनशन करता हूं, मेरे साथ विवाह करो। घर के लोग बहुत घबड़ाए, क्योंकि वह और कुछ धमकी देता तो पुलिस को खबर करते लेकिन उसने अहिंसात्मक आंदोलन चलाया था और गांव के लड़के भी उसका चक्कर लगाने लगे। वह अहिंसात्मक आंदोलन है, कोई साधारण आंदोलन नहीं है और प्रेम में भी अहिंसात्मक आंदोलन होना ही चाहिए।

घर के लोग बहुत घबड़ाए। फिर बाप को किसी ने सलाह दी कि गांव में जाओ, किसी रचनात्मक, किसी सर्वोदयी, किसी समझदार से सलाह लो कि अनशन में क्या किया जा सकता है। बाप गए, हर गांव में ऐसे लोग हैं जिनके पास और कोई काम नहीं है। वे रचनात्मक काम घर बैठे करते हैं। बाप ने जाकर पूछा, हम क्या करें बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। अगर वह छुरी लेकर धमकी देता तो हमारे पास इंतजाम था, हमारे पास बंदूक है, लेकिन वह मरने की धमकी देता है, अहिंसा से। उस आदमी ने कहा, घबड़ाओ मत, रात मैं आऊंगा, वह भाग जाएगा। वह रात को एक बूढ़ी वेश्या को पकड़ लाया, उस वेश्या ने जाकर उस लड़के के सामने बिस्तर लगा दिया और कहा कि आमरण अनशन करती हूं, तुमसे विवाह करना चाहती हूं। वह रात बिस्तर लेकर लड़का भाग गया।

गांधी जी ने अहिंसात्मक आंदोलन के नाम पर, अनशन के नाम पर जो प्रक्रिया चलाई थी, भारत उस प्रक्रिया से बर्बाद हो रहा है। हर तरह की नासमझी इस आंदोलन के पीछे चल रही है। किसी को आंध्र अलग करना हो, तो अनशन कर दो, कुछ भी करना हो, आप दबाव डाल सकते हैं और भारत को टुकड़े-टुकड़े किया जा रहा है, भारत को नष्ट किया जा रहा है। वह एक दबाव मिल गया है आदमी को दबाने का। मर जाएंगे, अनशन कर देंगे, यह सिर्फ हिंसात्मक रूप है, अहिंसा नहीं है। जब तक किसी आदमी को जोर जबरदस्ती से बदलना चाहता हूं चाहे वह जोर जबरदस्ती किसी भी तरह की हो, उसका रूप कुछ भी हो, तब तक मैं हिंसात्मक हूं। मैं गांधी जी की अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं--उसका यह मतलब न लें कि मैं अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं। अखबार यही छपाते हैं कि मैं अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं।


अस्वीकृति में उठा हाथ

 

ओशो 





Sunday, March 17, 2019

प्रार्थना का अर्थ

घटना कबीर के जीवन में है। एक बाजार से गुजरते हैं। एक बच्चा अपनी मां के साथ बाजार आया है। मां तो शाक-सब्जी खरीदने में लग गई और बच्चा एक बिल्ली के साथ खेलने में लग गया है। वह बिल्ली के साथ खेलने में इतना तल्लीन हो गया है कि भूल ही गया कि बाजार में हैं; भूल ही गया कि मां का साथ छूट गया है; भूल ही गया कि मां कहां गई।


कबीर बैठे उसे देख रहे हैं। वे भी बाजार आए हैं, अपना जो कुछ कपड़ा वगैरह बुनते हैं, बेचने। वे देख रहे हैं। उन्होंने देख लिया है कि मां भी साथ थी इसके और वे जानते हैं कि थोड़ी देर में उपद्रव होगा, क्योंकि मां तो बाजार में कहीं चली गई है और बच्चा बिल्ली के साथ तल्लीन हो गया है। अचानक बिल्ली न छलांग लगाई। वह एक घर में भाग गई। बच्चे को होश आया। उसने चारों तरफ देखा और जोर से आवाज दी मां को। चीख निकल गई। दो घंटे तक खेलता रहा, तब मां की बिल्कुल याद न थी..क्या तुम कहोगे?


कबीर अपने भक्तों से कहतेः ऐसी ही प्रार्थना है, जब तुम्हें याद आती है और एक चीख निकल जाती है। कितने दिन खेलते रहे संसार में, इससे क्या फर्क पड़ता है? जब चीख निकल जाती है, तो प्रार्थना का जन्म हो जाता है।


तब कबीर ने उस बच्चे का हाथ पकड़ा, उसकी मां को खोजने निकले। तब कोई सदगुरु मिल ही जाता है जब तुम्हारी चीख निकल जाती है। जिस दिन तुम्हारी चीख निकलेगी, तुम सदगुरु को कहीं करीब ही पाओगे..कोई फरीद, कोई कबीर, कोई नानक, तुम्हारा हाथ पकड़ लेगा और कहेगा कि हम उसे जानते हैं भलीभांति; हम उस घर तक पहुंच गए हैं, हम तुझे पहुंचा देते हैं।

 
प्रार्थना का अर्थ हैः याद, कि अरे, मैं कितनी देर तक भूला रहा! प्रार्थना का अर्थ हैः स्मृति, कि अरे, मैंने कितनी देर तक विस्मरण किया! प्रार्थना का अर्थ हैः याद, कि अरे, क्या यह भी संभव है कि इतनी देर तक याद भूल गई थी! तब एक चीख निकल जाती है। तब आंखें आंसुओं से भर जाती हैं; हृदय एक नई अभीप्सा से! तब सारा संसार पड़ा रह जाता हैः रेत के घर-घुले हैं! फिर तो जब तक मां न मिल जाए, तब तक चैन नहीं।

अकथ कहानी प्रेम की 


ओशो


Wednesday, March 13, 2019

आप स्वीकार करते हैं, फिर भी यह मानते हैं कि पिछला जन्म और अगला जन्म और यह जन्म भी हो सकते हैं?




नहीं यह मैं मानता नहीं हूं, यह मैं जानता हूं।


प्रश्नः मतलब क्या, आप मानते नहीं हैं और जानते हैं?


मानने का मतलब है कि किसी और ने कहा है। और मैं मानता हूं। जानने का मतलब है, मैंने जाना है। और मैं मानता नहीं हूँ। इतना फर्क पड़ जाता है। और बहुत बड़ा फर्क है, बहुत बड़ा फर्क है।


प्रश्न: आप यह समझा सकते हैं बात?


यह मैं समझा सकता हूं। लेकिन समझाने से आप, मानने से ज्यादा नहीं जा सकेंगे। लेकिन दिखा सकता हूं, वहां आप जानने में भी जा सकते हैं। तो उसकी सारी प्रक्रियाएं हैं। और बिल्कुल साइंटिफिक प्रक्रिया हैं कि आप अपने पिछले जन्म का स्मरण कैसे करें?


प्रश्नः यह फिजिकल साइंसेज और यह स्प्रिचुअल साइंसेज मतलब कि आप कहते हैं कि यह जन्म है और पिछला जन्म होता है और अगला जन्म भी होगा, बैठ जाएगा आपके दिमाग में?


बिल्कुल बैठ जाएगा, क्योंकि जहां साइंस है, वहां ताल-मेल बैठ ही जाता है। अगर दोनों साइंस हैं। मानने का और साइंस का मेल नहीं बैठेगा। जानने और सांइस का मेल बैठ जाएगा। उसके कारण हैं, क्योंकि चाहे कितनी भी भीतरी बात हो उसके पाने के उपाय अगर वैज्ञानिक हैं, तो बाहर का विज्ञान आज नहीं कल राजी हो जाएगा। अभी मैं एक आॅक्सफाॅर्ड यूनिवर्सिटी में एक लेबोरेट्री है, दिलावार लेबोरेट्री। उसमें वह कुछ वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे हैं और बहुत हैरान हो गए। एक फकीर ने यह कहा कि मैं कुछ बीजों के ऊपर प्रार्थना करके पानी छिड़क देता हूं, यह बीज तुम्हारें उन बीजों से जल्दी अंकुरित हो जाएंगे, जो मेरी प्रार्थना के पानी के बिना तुमने बोए हैं। जिस पर प्रयोग किया गया है। सैकड़ों प्रयोग किये गए हैं इस बात पर, और वह फकीर हर बार सही निकला। एक ही पुड़िया के आधे बीज इस गमले में डाले गए, आधे इस गमले में। सारा खाद, सारी मिट्टी सब एक-सा और जो पानी छिड़का गया वह भी एक, पानी भी अलग नहीं। लेकिन इस गमले पर डाले गए पानी के लिए उसने प्रार्थना की और डाला, और इस पर बिना प्रार्थना के डाला गया। और हैरानी की बात है उसके हर प्रार्थना के सब बीज जल्दी अंकुरित हुए। बड़े पत्ते आए, बड़े फूल आए और उसकी गैर प्रार्थना के बीज पिछड़ गए। अब दिलावार लेबोरेट्री ने अपनी इस साल की रिसर्च रिपोर्ट में कहा कि हमें इंकार करना मुश्किल है। और इससे भी बड़ी जो घटना घटी, वह यह घटी कि उस फकीर ने एक बीज पर खड़े होकर प्रार्थना की, ईसाई फकीर है जो गले में एक क्राॅस लटकाए हुए है, और दोनों हाथ फैला कर वह आंख बंद करके खड़ा हुआ है, और इस बीज के लिए उसने प्रार्थना की। और जब उस बीज का फोटो लिया गया, तो बड़ी हैरानी की बात हुई, उस फोटो में क्राॅस का पूरा चिह्न है। तो आज नहीं, अब वह दिलावार लेबोरेट्री तो बिल्कुल वैज्ञानिक नियमों से चलती है।

अब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गए। कि इस बीज के फोटोग्राफ में क्या इतनी संवेदनशीलता हो सकती है कि फकीर का चित्र उसमें भीतर प्रवेश कर गया। और उसकी छाती और उसके फैले हाथ, और क्राॅस उसमें पकड़ गया। लेकिन धर्म इसको बहुत दिन से कहता है। इतना जरूर है कि आम तौर से धर्म मानने वाले लोगों के हाथ में है, और इसलिए उन दोनों में ताल-मेल नहीं बैठता। मेरे जैसे आदमी के तो हाथ में तालमेल बैठने ही वाला है, उसमें कोई उपाय नहीं है। क्योंकि मैं मानता यह हूं कि धर्म जो है वह आंतरिक विज्ञान है। और विज्ञान जो है वो बाह्य धर्म है। और इन दोनों के सूत्र तो एक ही होने वाले हैं। आज देर लग सकती है, कि विज्ञान धीरे-धीरे बढ़ कर भीतर आ रहा है। अगर धर्म भी धीरे-धीरे बढ़ कर थोड़ा बाहर आए, तो किसी जगह मिलन हो सकता है। और वह मिलन आने वाली सदी में निश्चित ही हो जाएगा। और हो सकता है इसी सदी में हो जाए।

पिछले जन्म की स्मृति उतना ही वैज्ञानिक तथ्य है, जैसे इस जन्म की स्मृति। लेकिन दोनों में थोड़े से फर्क हैं, अब जैसे अगर मैं आपसे अभी पूछूं कि उन्नीस सौ पचास एक जनवरी आप थे तो, लेकिन स्मरण है आपको? नहीं है। अगर आपकी स्मृति से ही हमको मान कर चलना पड़े तो उन्नीस सौ पचास एक जनवरी हुई या नहीं हुई, और आपको कोई स्मरण नहीं और आप कहते हैं मैं था। आप किस आधार पर कहते है कि आप थे? क्योंकि आपको बिलकुल स्मरण नहीं कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास में क्या हुआ। आप सुबह कब उठे, कब सोए, क्या खाया, क्या पीआ? किससे क्या बात की आप कहते हैं, कुछ भी नहीं। अगर आप ही प्रमाण हैं, और कोई कैलेंडर नहीं बचे दुनिया में, तो आप सिद्ध न कर पाएंगे कि एक जनवरी, उन्नीस सौ पचास थी, क्योंकि पहली तो बात यह कि आपको स्मरण ही नहीं, जो बुनियादी चीज तो कट गई है। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि आपको अगर हिप्नोटाइज्ड किया जाए, तो आपको एक जनवरी, उन्नीस सौ पचास की सब स्मृतियां लौट आती हैं। तत्काल। मैं सैंकड़ो प्रयोग किया, और मैं दंग रह गया, कि आपको एक जनवरी जो आप होश में बिल्कुल नहीं बता पाते, बेहोशी में बताते हैं। वह स्मृति मिटी नहीं है। सिर्फ आपके अनकांशस में चली गई है। उसे उभारा जा सकता है। ठीक इसी भांति पिछले जन्म की स्मृतियां और गहरे अनकांशस में चली गई हैं। मां के पेट में भी जब बच्चा होता है, अगर मां गिर पड़ी हो तो उसकी चोट की स्मृति भी उसमें बनती है।

नए भारत की खोज 

ओशो