Sunday, July 26, 2015

मन की शुद्धता

मन की शुद्धता का अर्थ होता है पाने की इच्छा का बिलकुल अभाव–मात्र देना। वही प्रौढ़ चित्त है। एक बच्चा, एक अप्रौढ़ चित्त सदैव पाने में रहता है। एक बुद्ध, एक जीसस सदैव देने में होते हैं। वह दूसरा छोर है–दे रहे हैं। कुछ भी पाने को नहीं, परन्तु फिर भी दे रहे है क्योंकि देना एक खेल है, एक आनंद है अपने में। जब मैं कहता हूं इच्छा को समझो, तो मेरा आशय है–पाने की समझो और देने को समझो। समझो कि तुम्हारी जो स्थिति है वह है पाने की, पाने की और पाने की, और कभी भी तुम भरे-पूरे नहीं हो पाओगे, क्योंकि इसका कोई अंत नहीं है।
इसे समझे–क्या मिला तुम्हें इस सतत शाश्‍वत पाने से? क्या पाया आपने? आप जितने गरीब कभी पहले थे वैसे ही आज है। उतने ही भिखारी हैं, जितने पहले कभी थे, बल्कि ज्यादा ही। जितना अधिक तुम्हें मिलता है, उतने ही बड़े भिखारी तुम हो जाते हो और उतनी ही अधिक पाने की आकांक्षा बढ़ जाती है। अतः आप पाने से सिर्फ और अधिक पाना ही सीखते हो। कहां पहुंचे आप? क्या पाया आपने? इस विक्षिप्त व सतत पाने की क्या उपलब्धि हुई? कुछ भी तो नहीं? यदि आप इसे समझ जाएं, तो इसकी समझ ही रूपांतरण हो जाता है। पाना गिर जाता है, और उसके गिरने के साथ, एक नया आयाम खुलता है और आप देना प्रारंभ करते हैं। और यही विरोध है सबसे बड़ा–कि आपने तब पाने से कुछ भी नहीं पाया: परन्तु जब आप देते हैं, तो निरंतर पाते हैं, परन्तु वह पाना आपके पाने से संबंधित नहीं है जरा भी। देना ही अपने में एक भारी उपलब्धि है, एक गहरी परिपूर्णता है।

ओशो 

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