Friday, July 24, 2015

झुकने की गहन आकांक्षा

मैं छोटा था तो मेरे पिता को आदत है। घर में कोई भी आए बड़ा-बूढा, कोई भी आए, वे सब बच्चों को बुलाकर कहें कि जल्दी झुको, पैर छुओ। मैंने उनसे कहा कि हम पैर तो छू लेते हैं, मगर हम झुकते नहीं। उन्होंने कहा : मतलब? मैंने कहा : झुका हमें कोई नहीं सकता। यह तो बिल्कुल जबर्दस्ती है। कोई भी ऐरा-गैरा ,नत्थू खैरा घर में आ जाता, और बस बुलाए कि चलो, झुको। उस दिन तो उनकी बात मेरी समझ में नहीं आती थी, अब समझ में आती है : वह भी बहाना था। वह भी झुकाना सिखाने का बहाना था। लेकिन उसमें हृदय नहीं हो सकता था। क्योंकि मेरे भीतर कोई प्रीति नहीं उमड रही थी, मेरे भीतर कोई श्रद्धा नहीं जन्म रही थी। तो शरीर झुक जाएगा।
पुरी के शंकराचार्य आ गए, तुम हिंदू हो, तो जाकर शरीर झुक जाएगा। कोई मौलवी आया, तुम मुसलमान हो, तो जाकर झुक जाओगे। मगर क्या तुम्हारा हृदय झुक रहा है? अगर हृदय नहीं झुक रहा है तो इस उपचार से कुछ भी न होगा। और इस उपचार में एक खतरा है कि कहीं तुम इसी उपचार में उलझे न रह जाओ और कहीं ऐसा न हो कि असली झुकने की जगह चूक जाए, तुम वहां जाओ ही नहीं!

मैं सर तो झुकाती हूं तेरे हुक्म में लेकिन

दिल को मेरे राजी व रजा कौन करेगा?

जहां तुम्हारा दिल राजी और रजा हो जाए, जहां अचानक तुम पाओ कि झुकने की गहन आकांक्षा पैदा हो रही है, वहां बाधा मत डालना, बस। बिना उपचार के, बिना कारण के, अहेतुक झुक जाना। और उसी झुकने से पहली क्रांति घटती है, तामस छूटता है।

ओशो 

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