Sunday, August 2, 2015

मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।


जो अंत में फीका लगता था, वह प्रथम से ही फीका था। अंत में प्रकट हो रहा है वही, जो प्रथम से था। लेकिन प्रथम से तुमने कुछ और मान रखा था। फीका जो लग रहा है अंत में, वह फीका ही था। मिठास तुम्हारी मान्यता थी। तुमने डाल दी थी मिठास। तुमने कल्पना कर ली थी। और स्वभावत : तुम्हारी कल्पना यथार्थ को पराजित नहीं कर सकती। आज नहीं कल, यथार्थ से हारेगी। आज नहीं कल, यथार्थ की टक्कर को टूटना ही पड़ेगा। तुम कितना ही अपनी कल्पना को बल दो और कितनी ही ऊर्जा उसमें डालों, कल्पना टूटेगी ही, टूटेगी ही टूटेगी। कल्पना कल्पना है, कितनी देर तक झुठलाओगे?

और जब टूटती है कल्पना तो विषाद घेर लेता है। उसी विषाद से दो संभावनाएं निकलती हैं। एक संभावना तो यह है कि तुम जल्दी ही, जब तुम्हारा एक कल्पना का जाल टूटने लगे, एक आशा निरस्त हो, एक सपना गिरे, तुम जल्दी से दूसरा सपना बना लेना। वही आम आदमी करता है। सच तो यह है, एक गिर भी नहीं पाता और वह नया बनाने लगता है। ताकि गिरने के पहले ही नया बन जाए। पुराना मकान गिरे, इसके पहले नया बना लेता है। कहीं ऐसा न हो कि छप्पर के बिना छूट जाऊं। इधर एक सपना तिरोहित होने लगता है, उधर वह प्राण अपने दूसरे सपने में डालने लगता है। जब तक एक गिरता है, दूसरा निर्मित हो जाता है। इसलिए तो एक वासना समाप्त नहीं होती कि तुम दूसरी वासना की जकड़ में आ जाते हो। ऐसे वासना से वासना, सपने से सपना, आदमी बदलता चलता है। और इसी बहाने आदमी जीता है। यह जीना बिल्कुल झूठा है। क्योंकि तुम कितने ही सपने बदलो, सब सपने टूट जाएंगे, अंत में फीके हो जाएंगे।

एक और जीवन का ढंग है, जो कभी  कभी सौभाग्यशालियों को उपलब्ध होता है। बार  बार सपनों को टूट कर आदमी यह निर्णय करता है कि अब और नहीं, अब बस काफी है।… का सोवै दिन —रैन! बहुत सो लिए और बहुत सपना देख लिए, अब जागने की घड़ी आ गई, अब जागेंगे! अब और सपना नहीं बनाएंगे! और सपना न बनाना ही धर्म है। नई वासना निर्मित न करना ही धर्म है। यही धर्म में दीक्षा है अब बिना सपने के जिएंगे।
कठिन है बिना सपने के जीना। बहुत कठिन है। वही कीमत है, जो सत्य को पाने के लिए चुकानी पड़ती है। अब बिना आशा के जिएंगे। अब बिना भविष्य के जिएंगे। अब कल की बात ही नहीं सोचेंगे आज ही जिएंगे, अभी जिएंगे। अब जो परमात्मा करवाएगा वह करेंगे और जो परमात्मा दिखाएगा वह देखेंगे। हम अपनी कोई मंन्‍शा न रखेंगे। हम भीतर कोई छिपी आकांक्षा न रखेंगे कि ऐसा हो। जैसा होगा, जैसा है, उसको ही जानेंगे, उसको ही जिएंगे। हम अपनी तरफ से कोई प्रक्षेपण न करेंगे। हम फिल्म को हटा लेंगे। अब हम सूने परदे को देखेंगे, सफेद परदे को देखेंगे। सफेद परदा है, उस परदे पर चलती हुई रंगीन छायाएं नहीं हैं।

उस सफेद परदे के अनुभव का नाम समाधि है।

ओशो 

No comments:

Post a Comment