Monday, August 10, 2015

कुछ मत छोड़ो, कहीं भागो मत।

कुछ मत छोड़ो, कहीं भागो मत। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं : जहां हो वहीं जागो। भागने वाले जाग नहीं पाते। भागने वाले तो भयभीत हैं, कायर हैं। मगर हम कायरों को भी बड़े प्यारे नाम दे देते हैं, उनको कहते हैं रणछोडदासजी! रण छोड़ भागे..!

मेरे गांव में एक मंदिर था रणछोड़दासजी का मंदिर। मैंने उस गांव के पुजारी को जाकर कहा कि देख, इस मंदिर का नाम बदल! उसने कहा, क्यों? नाम कैसा प्यारा है : रणछोडदासजी! मैंने कहा, तूने कभी सोचा भी कि रणछोड़दासजी का मतलब क्या हुआ? भगोड़े! जिन्होंने पीठ दिखा दी जीवन को। वह थोड़ा चौंका, उसने कहा कि तुझे भी उलटी-सीधी बातें सूझती हैं! मुझे जिन्दगी हो गयी पूजा करते इस मंदिर में, मैंने कभी यह सोचा ही नहीं कि रणछोड़दासजी का यह मतलब होता है! बात तो तेरी ठीक, मगर अब तो दूर दूर तक इस मंदिर की ख्याति है : रणछोड्दासजी का मंदिर। नाम बदला नहीं जा सकता है। मगर तूने एक अड़चन मेरे लिए पैदा कर दी। यह शब्द तो गलत है। कोई अगर युद्ध के क्षेत्र से पीठ दिखा दे, तो हम कायर कहते हैं उसे, और जीवन के संघर्ष से पीठ दिखा दे तो उसको हम महात्मा कहते हैं! कैसा बेईमानी का गणित है!

मुझसे लोग पूछते हैं कि आपके संन्यासी कैसे हैं, क्योंकि न घर छोड़ते, न द्वार छोड़ते, न दुकान छोड़ते, न बाजार छोड़ते! मैं उनसे कहता हूं : मेरे संन्यासी ही संन्यासी हैं। क्योंकि छोड़ना है मन और कुछ भी नहीं छोड़ना है। काटनी हैं जडें मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयो: :। और क्या सिर पटकते रहते हो उपनिषदों पर, कुछ भी तुम्हारी समझ में नहीं आया। अब यह उपनिषद् सीधा सीधा कह रहा है कि मन है कारण, पत्नी कारण नहीं है। पत्नी को छोड़कर भाग जाओगे, कुछ भी न होगा। फिर कहीं किसी और को पत्नी बनाकर बैठ जाओगे। न होगी पत्नी, शिष्या होगी, सेविका होगी नाम कुछ भी रख लेना मगर वही मन और वही जाल। लेबिल बदल जाएंगे मगर भीतर जो भरा है सो भरा है।

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