Sunday, August 23, 2015

भाषा द्वंद्व से भरी है

प्रभु मंदिर की यात्रा सत्य के लिए वैसे ही कठिन है, उसे कहना मुश्किल है। जो अनुभव उस यात्रा पथ पर होते हैं, शब्दों में डालते ही झूठे हो जाते हैं। क्योंकि शब्द बहुत छोटा है, अनुभव बहुत विराट है। जैसे कोई अपनी मुट्ठी में आकाश को भरने की कोशिश करे और असफल हो जाए, वैसा ही सत्य को शब्द में ढालने में असफलता मिलती है। शून्य से कहा जा सकता है, शब्द से नहीं कहा जा सकता। मौन में तो शायद मुखरित भी हो सके, लेकिन वाणी से अवरुद्ध हो जाता है। यह तो यात्रा पथ की बात है। लेकिन मंदिर के द्वार पर जब खड़ा हो जाता है साधक, तब तो शब्द बिलकुल ही कठिनाई में डाल देते हैं। क्योंकि मंदिर के द्वार का अर्थ है. द्वंद्व का हुआ अंत!

और हमारी सारी भाषा ही द्वंद्व से निर्मित है। हमारी भाषा में विपरीत का होना जरूरी है। अगर हम अंधेरे का अर्थ समझ पाते हैं, तो सिर्फ इसीलिए कि प्रकाश है, नहीं तो अंधेरे का अर्थ खो जाए। अगर कोई अंधेरे की परिभाषा पूछे, तो क्या कहिएगा? यही कहिएगा न, कि प्रकाश का न होना। अंधेरे की परिभाषा में प्रकाश को लाना पड़े, बड़ी मजबूरी है! और, और भी मजबूरी तो तब पता चलती है, जब कोई पूछ ले कि प्रकाश की परिभाषा क्या है? तो आप को कहना पड़ता है अंधेरे का न होना! यह तो बड़ा जाल हो गया। अंधेरे की परिभाषा में प्रकाश को लाना पड़ता है। प्रकाश की परिभाषा में अंधेरे को लाना पड़ता है! दोनों एकदूसरे पर निर्भर मालूम पड़ते हैं। और दोनों अलग अलग अस्तित्व में नहीं हो सकते, उनकी परिभाषा तक नहीं हो सकती।

भाषा द्वंद्व से भरी है, क्योंकि भाषा द्वंद्व जगत के लिए निर्मित हुई है। यहां जन्म का अर्थ मृत्यु में छिपा है। उलटी दिखाई पड़ने वाली मृत्यु में जन्म का सारा अर्थ छिपा है! यहां प्रेम का अर्थ भी घृणा में छिपा है। और घृणा अगर संसार से मिट जाए, तो प्रेम मिट जाए।

साधनासूत्र

ओशो 

No comments:

Post a Comment