Thursday, August 13, 2015

प्रार्थना

मुझ अकेले से होता तो हो गया होता। मुझ अकेले से तो क्षुद्र भी नहीं सध पाया! चाहा था धन मिल जाए, वह भी नहीं मिला! चाहा था पद मिल जाए, वह भी नहीं मिला! कैसी-कैसी चाहें की थीं, बड़ी छोटी थीं, वे भी पूरी न हुईं। मुझ अकेले से तो संसार भी न सधा, तो सत्य की यह महायात्रा मुझ अकेले से हो सकेगी? अकेले-अकेले तो मैं संसार में भी हार गया हूं।

सभी हारे हुए हैं संसार में। जो जीते हुए दिखाई पडते हैं, वे भी। बस वे दूसरों को ‘ जीते हुए दिखाई पड़ते हैं, खुद तो बिलकुल हारे हुए हैं। आप भी अपने को हारे हुए दिखाई पड़ते होंगे, औरों को तो आप भी जीते हुए दिखाई पड़ते हैं। आपसे भी पीछे लोग हैं, जो आपको समझते हैं, पा लिया आपने, जीत गए संसार में। लेकिन भीतर से अगर हम आदमी को देखें तो एक-एक आदमी हारा हुआ है।

संसार पराजय की लंबी कथा है? वहा जीत होती ही नहीं। वहा जीत हो ही नहीं सकती; वह संसार का स्वभाव नहीं है। वहा हार ही नियति है। किसी की नहीं, किसी व्यक्ति की नहीं, संसार में होने की नियति ही हार है। वहा हारना ही होगा। वहा कोई कभी जीतता नहीं है।

वहा हम नहीं जीत पाए जहा क्षुद्र था, स्वप्न था, शंकर कहते हैं माया है। वह माया में भी हार गए! सपना था, भ्रम था, वहा भी तो जीत न पाए! जब भ्रम में भी हार गए, सपने में भी न जीते, तो यथार्थ में, सत्य में अकेले से क्या होगा?

प्रार्थना का अर्थ है, संसार में पराजित हुए व्यक्ति का यह अनुभव कि जन्मों-जन्मों तक चेष्टा करके मैं हार गया क्षुद्र में, तो विराट में मेरी सामर्थ्य?

इसलिए प्रार्थना।

इसलिए सारे जगत को पुकारा है ऋषि ने कि मुझे साथ देना।


ओम शं नो मित्र: शै वरुण:। शै नो भवर्त्यम।। शं न इंद्रो बृहस्पति:। शं नो विष्णुरुक्रम:।
नमे। क्यणे। नमस्ते वाये।। त्वमेव प्रत्यक्ष ब्लासि त्वमेव प्रत्यक्ष क्ल वादिष्यामि।
            ऋत वादिष्यामि। सत्यं वादिष्यामि। तन्मामवतु।
            ऋक्लारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्।
                       
                  ओम शांतिः शांतिः शांति:।



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