Tuesday, September 29, 2015

स्व-भाव की खोज धर्म है

मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर मेहमान था। उसका बेटा खाना खा रहा था। पहले वह बायें हाथ से खा रहा था, थोड़ी देर में उसने दायें हाथ से खाना शुरू कर दिया। मैं थोडा चौका। फिर मैंने देखा कि उसने फिर बायें हाथ से शुरू कर दिया। नसरुद्दीन ने कहा : ‘हजार बार तुझसे कहा लड़के कि दायें हाथ से खाना खा; बायें हाथ से मत खा।’ लड़के ने कहा : ‘क्या फर्क पड़ता है; मुंह बिलकुल दोनों के बीच में हैं—चाहे इधर से खाओ, चाहे उधर से खाओ। यात्रा बराबर करनी पड़ती है। मुंह बिलकुल मध्य में हैं।’

सुख और दुख के मध्य में खोजना किसी बिंदु को, वही सतत हो सकता है। ठीक मध्य में संतुलन है, सम्यकत्व है। वहां न यह अति है, न वह अति है। जैसे तराजू होता है, वह जो मध्य में काटा है बीच में थिर: वही तुम हो सकते हो। इस पर वजन पड़ा थोड़ी देर में थक जाओगे तो दूसरे तरफ वजन डालना पड़ेगा। जैसे लोग मरघट ले जाते है अर्थी को रखकर कंधे पर तो रास्ते में कंधा बदलते हैं एक कंधा दुखने लगता है, दूसरे पर रख लेते हैं। कुछ वजन कम नहीं होता, लेकिन कंधा बदलने से राहत मिलती है। फिर थोड़ी देर में यह कंधा दुखने लगता है, दूसरे पर रख लेते है।

सुख दुख तुम्हारे कंधे है और कर्ता का भाव तुम्हारी अर्थी है, जिसको तुम बदलते रहते हो। कभी सुख के साथ जुड़ जाते हो, कभी दुख के साथ जुड़ जाते हो। साक्षी बनो! मध्य में ठहर जाओ। तब तुम सतत रह पाओगे। बुद्धत्व सतत रह सकता है, क्योंकि वह शांत अवस्था है। वहां आनंद तो है, लेकिन वह आनंद सूरज की प्रगाढ़ किरणों की भांति नहीं है; चांद की शांत किरणों की भांति है। वहां आनंद तो है लेकिन जलती हुई अग्रि की भांति नहीं, शांत आलोक की भांति है। उस में कोई तनाव नहीं है। उसमें कोई बेचैनी नहीं है।

तुमने खयाल किया कि सुखी आदमी अकसर हार्ट फेल से मर जाते है। कभी बहुत सुख जा आये, लाटरी एकदम से आ जाये न मिले तो मुसीबत, मिल जाये तो मुसीबत, एक दम से लाटरी मिल जाये कि तुम गये। मैने सुना है कि एक आदमी को लाटरी मिल गयी दस लाख रुपये की। पत्नी को खबर मिली। पली बहुत घबडायी क्योंकि वह अपने पति को जानती है कि अगर दस पैसे मिल जायें तो हार्ट फेल हो जाये। दस लाख रुपये! पति बाहर थे। वह भागी पड़ोस में गयी। एक मंदिर के पुजारी को उसने पकड़ा, क्योंकि उसे वह ज्ञानी समझती थी। उसने कहा. ‘ भैया, कुछ मेरी सहायता करें। पति घर आये, उसके पहले कुछ जमाओ। दस लाख रुपये की लाटरी मिल गई है! ‘ उसने कहा ‘मत घबड़ा। ढंग से हम समझा लेंगे। मात्रा मात्रा में काम करना पड़ेगा। आने दे पति को, मैं आता हूं।’

पुजारी जाकर बैठ गया। पति आया। पुजारी ने सोचा कि दस लाख बहुत ज्यादा हो जायेगा, एक लाख से शुरू करें। धीरे धीरे चोट करने से ठीक रहेगा। तो उसने कहा : ‘सुनो, एक लाख रुपये लाटरी में मिल गये हैं! ‘वह आदमी बोला. ‘सच! अगर एक लाख मिला तो पचास हजार तुम्हारे मंदिर को दान।’ पुजारी का वहीं हार्ट फेल हो गया। उसने कभी सोचा ही नहीं था, पचास हजार!

सुख भी मार डालता है। दुख तो मारता ही है, सुख भी मार डालता है; क्योंकि दोनों में एक उत्तेजना है। और जहां उत्तेजना है वहां चीजें टूट जाती है। सतत तो वही रह सकता है जो तुम्हारा अनुत्तेजित स्वभाव है। जिसे साधना न पड़े, वही सतत रह सकता है। जो सदा बिना साधे तुम्हारे भीतर है वही सतत रह सकता है। जिसे तुम छोड़ भी नहीं सकते, वही सतत रह सकता है।

इसलिए सारे धर्म की खोज स्वभाव की खोज है। स्वभाव की खोज धर्म है; क्योंकि वह शाश्वत है, उससे तुम कभी न ऊबोगे क्योंकि वह तुम ही हो। उससे अलग होने का उपाय ही नहीं है। उसके पार खड़े होकर देखने का उपाय नहीं। जिससे भी तुम दूर खड़े होकर देख सकते हो, उससे तुम ऊब जाओगे; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है।

मंत्र जब मन को मार डालेगा; मंत्र के द्वारा मन जब आत्महत्या कर लेगा, तब तुम्हारे भीतर उस सतत झरने का प्रवाह शुरू होगा। और जैसे ही यह सतत झरना पैदा होता है, और सुख दुख बाह्य वृत्तियों से विमुख, वह केवली हो जाता है। तब वह अकेला है। अब वह अकेले धुन में मस्त है। अब उसे कुछ भी नहीं चाहिए। अब सब चाह मर गयी। क्योंकि सुख भी बाहर है, दुख भी बाहर है। अब न तो वह सुख की चाह करता है, न दुख से बचने की चाह करता है। जो बाहर है, उससे उसका संबंध ही छूट गया। अब तो वह अपने भीतर थिर है और भीतर सतत आनंदित है, इसलिए चाह का कोई सवाल नहीं। अब वह सतत अपनी चेतना में रमता है। उसका सच्चिदानंद अब निरंतर चलता रहता है। वह उसकी श्वास श्वास में, होने के कण कण में व्याप्त है। वही शिव स्वरुप है 

शिव सूत्र 

ओशो

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