Thursday, September 24, 2015

संन्यास का निर्णय

ध्यान रहे, आदमी बहुत अनूठा है। उसका अनूठापन ऐसा है कि कोई अगर आपसे कहे कि दो हजार, या दो करोड़ या अरब तारे है तो आप बिलकुल मान लेते हैं। लेकिन अगर किसी दीवार पर नया पेंट किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब तक उंगली खराब न हो जाए तब तक मन नहीं मानता। सूरज को बिना सोचे मान लेते हैं और दीवार पर पेंट नया हो तो छूकर देखने का मन होता है। जितनी दूर की बात हो उतनी बिना दिक्कत के आदमी मान लेता है। जितनी निकट की बात हो उतनी दिक्कत खड़ी होती है।

संन्यास आपके सर्वाधिक निकट की बात है। उससे निकट की और कोई बात नहीं है। अगर जो विवाह करेंगे तो वह भी दूर की बात है। क्योंकि उसमें दूसरा सम्मिलित है, इन्वॉल्वड है। आप अकेले नहीं हैं। संन्यास अकेली घटना है जिसमें आप अकेले ही हैं, कोई दूसरा सम्मिलित नहीं है। बहुत निकट की बात है। उसमें आप बड़ी परेशानी में हैं। उस निर्णय को लेकर बड़ी कठिनाई होती है मन को।

जितनी बड़ी भीड़ हो हम उतना जल्दी निर्णय ले लेते हैं। अगर दस हजार आदमी एक मस्जिद को जलाने जा रहे हैं तो हम बिलकुल मजे से उसमें चले जाते हैं। यदि दस हजार आदमी मंदिर में आग लगा रहे हैं तो हम बराबर सम्मिलित हो जाते हैं। दस हजार लोग हैं, रिस्पासिबिलिटी, जिम्मेवारी, फैली हुई है, आप अकेले जिम्मेवार नहीं हैं दस हजार आदमी साथ हैं। अगर कल बात हुई तो आप कहेंगे कि इतनी बडी भीड़ थी, मेरा होना, न होना, बराबर था। नहीं भी होता मैं तो भी मंदिर जलनेवाला ही था। मैं तो खड़ा था, चला गया। जिम्मेवारी मालूम नहीं पडती।

लेकिन संन्यास ऐसी घटना है जिसमें सिर्फ तुम ही जिम्मेवार हो, और कोई नहीं, ओनली यू आर रिस्पांसिबल, नो वन ऐल्‍स। इसलिए निर्णय करने में बड़ी मुश्किल होती है। अकेले ही हैं, किसी दूसरे पर जिम्मेवारी डाली नहीं जा सकती। किसी से आप यह नहीं कह सकते कि भीड़ की वजह से, तुम्हारी वजह से मैं लेता हूं। इसलिए निर्णय को हम टालते चले जाते हैं। अकेला आदमी जिस दिन निर्णय लेने में समर्थ हो जाता है उसी दिन आत्मा की शक्ति जागनी शुरू होती है, भीड़ के साथ चलने से कभी कोई आत्मा की शक्ति नहीं जगती।

दूसरी मजे की बात है कि लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि नब्बे प्रतिशत तो मेरा मन तैयार है संन्यास लेने के लिए, दस प्रतिशत नहीं है, तो जब पूरा हो जाएगा मेरा सौ प्रतिशत मन तब मैं संन्यास ले लूंगा। लेकिन इस आदमी ने कभी विवाह करते समय नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! चोरी करते वक्त नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! क्रोध करते वक्त नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! गाली देते समय नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! सिर्फ संन्यास के समय यह कहता है कि सौ प्रतिशत मन तैयार होगा तब! यह अपने को धोखा दे रहा है। यह भली भांति जानता है कि सौ प्रतिशत मन कभी तैयार नहीं होगा इसलिए बचाव की सुविधा बनाता है। अगर यही धारणा है कि सौ प्रतिशत मन जब तैयार होगा तभी कुछ करेंगे, तो ध्यान रखना, आपका सब करना आपको बंद करना पड़ेगा। सौ प्रतिशत मन आपका कभी किसी चीज में तैयार नहीं होता है। लेकिन बाकी सब काम आदमी जारी रखता है।

और यह भी मजे की बात है कि जब आप तय करते हैं कि नब्बे प्रतिशत मन तो कहता है, दस प्रतिशत अभी नहीं कहता है; तो आप को पता नहीं है कि आप संन्यास नहीं ले रहे हैं तो आप दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय लेते हैं, नब्बे प्रतिशत को इनकार करते हैं। असल में न लेने में ऐसा लगता है कि जैसे कोई बात ही नहीं हुई। संन्यास न लेना भी निर्णय है। दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय लेते हैं, नब्बे प्रतिशत को छोड़ देते हैं तो आपकी जिंदगी बहुत दुविधा में भरी जिंदगी हो जाएगी। अगर निर्णय लेना है तो इक्यावन प्रतिशत भी हो तो निर्णय ले लेना चाहिए, उनचास प्रतिशत को छोड़ देना चाहिए। लेकिन हम ऐसे हैं कि अगर हमें एक प्रतिशत भी गलत कोई बात मन कहता है तो निन्यान्नबे को छोड़कर एक प्रतिशत वाला काम कर लेते हैं और निन्यान्नबे प्रतिशत भी कोई ठीक बात मन कहता हो तो एक प्रतिशत वाली बात पर निर्णय लेते हैं।

ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद आदमी आनंद चाहता ही नहीं। कहता जरूर है कि आनंद चाहते हैं, शांति चाहते है, लेकिन शायद आदमी आनंद चाहता ही नहीं। क्योंकि बातें वह आनंद के चाहने की करता है, लेकिन जो कुछ भी वह करता है उससे दुख ही मिलता है, उस सबसे दुख ही मिलता है। उपाय सब दुख के करता है, बातें आनंद की करता है। और कभी गौर से नहीं देखता है कि मेरा दुख, मैं जो कर रहा हूं उन्हीं उपायों पर निर्भर है।

संन्यास आनंद का निर्णय है। अब मैं आनंद चाहता हूं इतना ही नहीं, आनंद को पाने के लिए कुछ करूंगा भी। संन्यास इस बात का निर्णय है कि अब मैं सिर्फ आनंद की चाह ही नहीं करूंगा, उस चाह को पूरा करने के लिए जीवन दांव पर भी लगाऊंगा। संन्यास इस बात की भी अपने प्रत्यक्ष, अपने सामने घोषणा है कि अब मैं दुख से बचने की कोशिश ही नहीं करूंगा, दुख जिन जिन चीजों से पैदा होता है उनको छोड़ने का सामर्थ्य और साहस भी जुटाऊंगा।

मैं कहता अांखन देखि 

ओशो 

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