Sunday, September 20, 2015

कला एक ध्‍यान

कला एक ध्‍यान है। कोई भी कार्य ध्‍यान बन सकता है, यदि हम उसमें डूब जाएं। तो एक तकनीशियन मात्र मत बने रहें। यदि आप केवल एक तकनीशियन हैं तो पेंटिंग कभी ध्‍यान नहीं बन पाएगी। हमें पेंटिंग में पूरी तरह डूबना होगा, पागल की तरह उसमें खो जाना पड़ेगा। इतना खो जाना पड़ेगा कि हमें यह भी खबर न रह जाए कि हम कहां जा रहे है, कि हम क्‍या कर रहे है, कि हम कौन है। 

तकनीशियन मात्र मत बने रहें। यदि आप केवल एक तकनीशियन हैं तो पेंटिंग कभी ध्‍यान नहीं बन कला एक ध्‍यान है। कोई भी कार्य ध्‍यान बन सकता है, यदि हम उसमें डूब जाएं। तो एक पाएगी। हमें पेंटिंग में पूरी तरह डूबना होगा, पागल की तरह उसमें खो जाना पड़ेगा। इतना खो जाना पड़ेगा कि हमें यह भी खबर न रह जाए कि हम कहां जा रहे है, कि हम क्‍या कर रहे है, कि हम कौन है।

यह पूरी तरह खो जाने की स्थिति ही ध्‍यान होगी। इसे घटने दें। चित्र हम न बनाएं, बल्कि बनने दें। और मेरा मतलब यह नहीं है कि हम आलसी हो जाएं। नहीं, फिर तो वह कभी नहीं बनेगा। यह हम पर उतरना चाहिए, हमें पूरी तरह से सक्रिय होना है और फिर भी कर्ता बनना है। यही पूरी कला है—हमें सक्रिय होना है, लेकिन फिर भी कर्ता नहीं बनना है।

कैनवस के पास जाएं। कुछ मिनटों के लिए ध्‍यान में उतर जाएं, कैनवस के सामने शांत होकर बैठ जाएं। यह ‘सहज लेखन’ जैसा होना चाहिए, जिसमें हम पेन अपने हाथ में लेकर शांत बैठ जाते है और अचानक हाथ में एक स्‍पंदन सा महसूस होता है। हमने कुछ किया नहीं, हम भली भांति जानते हैं कि हमने कुछ किया नहीं। हम तो सिर्फ शांत-मौन प्रतीक्षा कर रहे थे। एक स्‍पंदन सा होता है और हाथ चलने लगता है, कुछ उतरने लगता है।
उसी तरह से हमें पेंटिंग शुरू करनी चाहिए। कुछ मिनटों के लिए ध्‍यान में डूब जाएं, सिर्फ उपलब्‍ध रहें—कि जो हो रहा है, उसे होने देंगे। हम अपनी सारी प्रतिभा, सारी कुशलता का उपयोग, जो भी होगा, उसे होने देने में करेंगे।

इस भाव-दशा के साथ ब्रश उठाएं और शुरू करें। आहिस्‍ता शुरू करें, ताकि आप बीच में न आएं। बहुत आहिस्‍ता शुरू करें। जो भी भीतर से बहे, बहने दे, और उसमें लीन हो जाएं। शेष सब भूल जाएं। कला सिर्फ कला के लिए ही हो, तभी वह ध्‍यान है। उसका कोई और लक्ष्‍य नहीं होना चाहिए। और मैं यह नही कह रहा हूं कि हम अपनी पेंटिंग बेचें नहीं या उसका प्रदर्शन न करें—वह बिलकुल ठीक है। पर वह बाइ-प्रोडेक्ट है। वह उसका उद्देश्य नहीं है। भोजन की जरूरत है, तो पेंटिंग बेचनी भी पड़ती है। हालांकि बेचने में पीड़ा होती है; यह अपना बच्‍चा बेचने जैसा ही है। मगर जरूरत है, तो ठीक है। दुःख भी होता है, लेकिन यह उद्देश्य नहीं था; बेचने के लिए चित्र नहीं बनाया गया था। वह बिक गया यह बिलकुल दूसरी बात है लेकिन बनाते समय कोई उद्देश्य नहीं है। नहीं तो हम एक तकनीशियन ही रह जाएंगे।

हमें तो मिट जाना चाहिए। हमें मौजूद रहने की जरूरत नहीं है। हमें तो अपनी पेंटिंग में, अपने नृत्‍य में, श्‍वास में, गीत में पूरी तरह खो जाना चाहिए। जो भी हम कर रहे हों, उसमें बिना किसी नियंत्रण के हमें पूरी तरह खो जाना चाहिए।

ओशो

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