Friday, September 11, 2015

दो तरह के निरीक्षण

    एक निरीक्षण है जब तुम विचारों से भरे हुए जीवन को देखते हो। तब तुम जीवन को नहीं देखते। तुम अपने विचारों की ही छवि जीवन में देख लोगे। तब तुम अपने विचारों को ही जीवन पर आरोपित कर लोगे। तब तुम जो देखना ही चाहते थे वही देख लोगे। वही नहीं, जो है, वरन वह जो तुम पहले से ही मान बैठे थे–तुम्हारा विश्वास, तुम्हारी धारणा, तुम्हारा धर्म, तुम्हारा शास्त्र, तुम जीवन में देख लोगे। और तब तुम जीवन के सम्यक निरीक्षक नहीं हो।

    जीवन को तो ऐसे देखा जाना चाहिए जैसे दर्पण देखता है–खाली; शून्य। जिसके पास अपना जोड़ने को कुछ भी नहीं है, जो सिर्फ दिखलाता है वही जो है। शांत झील; एक तरंग भी नहीं। उगता है चांद, बदलियां आकाश में गतिमान होती हैं; बनता है प्रतिबिंब। फिर एक और झील है, तरंगायित, लहरों से भरी। तब भी चांद का प्रतिबिंब तो बनता है, लेकिन हजार-हजार खंडों में टूट जाता है। तुम चांद को खोज न पाओगे। लहर-लहर पर चांद फैला होगा। तुम्हें पूरी झील पर ही चांदनी फैली हुई मालूम पड़ेगी। चांद को पकड़ना मुश्किल होगा।

   तुम्हारा मन विचार की तरंगों से भरा है। जब तुम पांडित्य लेकर आते हो प्रकृति के पास तब तुम चूक जाते हो। तब तुम्हें जरूर कुछ दिखाई पड़ेगा, लेकिन तुम इस धोखे में मत पड़ना कि जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है वह सत्य है। वह केवल तुम्हारे विचार की अनुगूंज है। तुमने जो पहले से ही स्वीकार कर लिया था, वही प्रतिफलित हो रहा है। लाओत्से बड़ा शुद्ध निरीक्षक है। वह कोई विचार लेकर प्रकृति के पास नहीं गया है। उसने तथ्यों को सीधा-सीधा देखना चाहा है। बड़ा कठिन है; शायद इससे कठिन और कुछ भी नहीं है। क्योंकि यही तो मार्ग है सत्य के उदघाटन का।

ताओ उपनिषद 

ओशो 

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