Thursday, September 17, 2015

राजनीति

मुल्ला नसरुद्दीन एक दुकान पर कुछ सामान खरीदने गया था। कोई त्यौहार के दिन थे और दुकानदार ने चीजों के दाम काफी कम कर दिए थे। कम किए हों या न किए हों, कम से कम बाहर उसने तख्ती तो लगा दी थी कि जो चीज दस रुपए की है, वह पांच रुपए में बिक रही है। चाहे वह पहले भी पांच रुपए में बिकती रही हो!

मगर भीड़ भारी हो गयी थी। खासकर स्त्रियां ऐसी जगह जरूर पहुंच जाती हैं। सस्ती कोई चीज मिलती हो, तो वे फिर यह भी नहीं सोचतीं कि अपने को इसकी जरूरत भी है या नहीं! सस्ती मिल रही हो, तो वे बचा ही लेती हैं पैसा उतना!

बड़ी भीड थी। मुल्ला अकेला पुरुष था। लेकिन पत्नी ने उसको भेजा था, तो आना पड़ा था। पत्नी जरा बीमार थी, खुद नहीं आ सकी। और सारे मोहल्ले की पत्नियां जा रही थीं, स्त्रियां जा रही थीं! तो उसने कहा मुल्ला! तुम्हें जाना ही पड़ेगा। सारा गांव जा रहा है, हम ही चूक जाएंगे। मैं बीमार पड़ी हूं। अभागा है दिन आज कि मैं बीमार हूं। तुम चले जाओ।

जाना पड़ा था। बड़ी देर खड़ा रहा। स्त्रियों की भीड़ भक्का! उसमें अकेला पुरुष! ज्यादा धक्कम धुक्की भी नहीं कर सके। और स्त्रिया खूब धक्कम  धुक्की कर रही हैं। और वे जा रही हैं और एक।

दो घंटे देखता रहा। उसने सोचा. यह तो दिनभर बीत जाएगा, मैं दुकान के भीतर ही नहीं पहुंच पाऊंगा! तो उसने सिर नीचे झुकाया और दोनों हाथों से स्त्रियों को चीरना शुरू किया, जैसा आदमी पानी में तैरता है; ऐसा नीचे सिर झुकाकर वह एकदम घुसा!

स्त्रियां बड़ी चौंकी। दो चार ने उसको धक्का भी मारा और कहा नसरुद्दीन कैसे करते हो? एक सज्जन पुरुष की तरह व्यवहार करो!

नसरुद्दीन ने कहा : सज्जन पुरुष की तरह व्यवहार दो घंटे से कर रहा हूं। अब तो एक सवारी का व्यवहार करूंगा! अब सज्जन से काम चलने वाला नहीं है। अब तो सन्नारी का व्यवहार करूंगा, तो ही पहुंच पाऊंगा, नहीं तो नहीं पहुंच सकता।

राजनीति में जो जितना मूढ़ हो, जितना पागल हो और जितना सिर घुसाकर पड जाए एकदम पीछे, वही पहुंच पाता है। समझदार तो कभी के घर लौट आएंगे, कि भई, यहां अपना बस नहीं है। यह अपना काम नहीं है। समझदार तो अपनी मालाएं ले लेंगे और राम राम जपेंगे। यहां अपना काम नहीं है!  नासमझ..!

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