Friday, September 11, 2015

अहंकार को जितनी धार दे सकते हो, धार दो।

    पूर्वीय आदमी को अभ्यास कराया गया है सदियों से : झुक जाओ, विनम्र रहो। अहंकार को बढ़ने का मौका नहीं दिया गया। तो झुक तो जाता है, लेकिन झुकने में कुछ बल नहीं है। बल तो अहंकार से ही आता है और अहंकार तो बढ़ा ही नहीं कभी। पहले से ही पिटी पिटाई हालत है। पश्चिम का आदमी आता है, झुकने की बात उसे कभी सिखाई नहीं गई; किसी के चरणों में झुकने की बात ही बेहूदी मालूम पड़ती है, संगत नहीं मालूम पड़ती। क्यों? क्यों किसी के चरणों में झुकना? अपने पैर पर खड़े होने की बात समझाई गई। संकल्प को बढ़ाओ। मनोबल को बढ़ाओ। आत्मबल को बढ़ाओ। पश्चिम के आदमी को अहंकार को मजबूत करने का शिक्षण दिया गया है। लेकिन जब भी पश्चिम का कोई आदमी झुकता है तो तुम भरोसा कर सकते हो कि यह झुकना वास्तविक है। नहीं तो वह झुकेगा ही नहीं, क्योंकि औपचारिक तो झुकने का कोई कारण ही नहीं है। पूरब के आदमी का कुछ पक्का नहीं है। कभी कभी पूरब का आदमी जब नहीं झुकता है, तब सुंदर मालूम पड़ता है, क्योंकि कम से कम इतनी हिम्मत तो है कि उपचार के, परंपरा के, झूठे शिष्टाचार के विपरीत खड़ा हो सकता है; यह कह सकता है कि नहीं, मेरा झुकने का मन नहीं है।

   मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि झुकने के लिए पहले कुछ अहंकार तो होना चाहिए जो झुके। अगर दुनिया की शिक्षा ठीक रास्ते पर चले तो हम पहले अहंकार को बढ़ाने का शिक्षण देंगे। हम प्रत्येक बच्चे को उसके पैर पर खड़ा होना सिखायेंगे। और कहेंगे, संकल्प ही एकमात्र जीवन है। लड़ो! जूझो! संघर्ष करो! झुको मत! टूट जाओ, मिट जाओ, मगर झुको मत! हारना ठीक नहीं, मिट जाना ठीक है। जूझो! जब तक बने, जूझो! और अपने अहंकार को जितनी धार दे सकते हो, धार दो।

यह जीवन का पूर्वार्ध, कम से कम पैंतीस साल की उम्र तक तो अहंकार को परिपक्व करने का शिक्षण मिलना चाहिए। फिर पैंतीस साल के बाद जीवन का दूसरा अध्याय शुरू होता है —उत्तरार्ध। फिर समर्पण की शिक्षा शुरू होनी चाहिए। फिर आदमी को सिखाया जाना चाहिए कि अब तुम्हारे पास है चरणों में रखने को कुछ, अब झुकने का मजा है। पहले तो फल को कहना चाहिए कि ‘तू लटका ही रहना, छोडना मत झाड़ को; जल्दी मत छोड़ देना, नहीं तो कच्चा रह जायेगा। पक! जितना रस ले सके ले।’ लेकिन फिर जब फल पक जाये तब भी अटका रहे तो सडेगा। जब फल पक जाये तो छोड़ दे झाडू को, अब बात खतम हो गई।

जीवन का यह अनिवार्य हिस्सा है कि जीवन को हमें विरोध से ले चलना पड़ता है।

अष्टावक्र महागीता

ओशो 

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