Thursday, October 1, 2015

हे देवी यह अनुभव दो श्वासों के बीच घटित हो सकता है। श्वास के भीतर आने के पश्चात और बाहर लौटने के ठीक पूर्व-श्रेयस है कल्याण है।

ह विधि है. ‘हे देवी, यह अनुभव दो श्वासों के बीच घटित हो सकता है।’ जब श्वास भीतर अथवा नीचे को आती है उसके बाद, और फिर श्वास के बाहर लौटने के ठीक पूर्व-’ श्रेयस है।’ इन दो बिंदुओं के बीच होशपूर्ण होने से घटना घटती है।

जब तुम्हारी श्वास भीतर आए तो उसका निरीक्षण करो। उसके फिर बाहर या ऊपर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण के लिए, या क्षण के हजारवें भाग के लिए श्वास बंद हो जाती है। श्वास भीतर आती है और वहां एक बिंदु है जहा वह ठहर जाती है। फिर श्वास बाहर जाती है। और जब श्वास बाहर जाती है तो फिर वहा भी एक क्षण के लिए या क्षणांश के लिए ठहर जाती है। और फिर वह भीतर के लिए लौटती है।

श्वास के भीतर या बाहर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण है जब तुम श्वास नहीं लेते हो। उसी क्षण में घटना घटनी संभव है; क्योंकि जब तुम श्वास नहीं लेते हो तो तुम संसार में नहीं होते हो। समझ लो कि जब तुम श्वास नहीं लेते हो तब तुम मृत हो; तुम तो हो, लेकिन मृत। लेकिन यह क्षण इतना छोटा है कि तुम उसे कभी देख नहीं पाते।

तंत्र के लिए प्रत्येक बहिर्गामी श्वास मृत्यु है और प्रत्येक नई श्वास पुनर्जन्म है। भीतर आने वाली श्वास’ पुनर्जन्म है; बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु है। बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु का पर्याय है, अंदर आने वाली जीवन का। इसलिए प्रत्येक श्वास के साथ तुम मरते हो और फिर जन्म लेते हो। दोनों के बीच का अंतराल बहुत क्षणिक है, लेकिन पैनी दृष्टि, शुद्ध निरीक्षण अवधान और अनुभव छट जा सकता। यदि तुम उस अंतराल छ अनुभव कर सको तो शिव कहते हैं कि श्रेयस उपलब्ध है। तब और किसी चीज की जरूरत नहीं है। तब तुम आप्तकाम हो गए। तुमने जान लिया; घटना घट गई।

श्वास को प्रशिक्षित नहीं करना है। वह जैसी है उसे वैसी ही रहने दो। फिर इतनी सरल विधि क्यों? सत्य को जानने को ऐसी सरल विधि? सत्य को जानना उसको जानना है जिसका न जन्म है न मरण, उस शाश्वत को जानना है जो सदा है। तुम बाहर जाती श्वास को जान सकते हो, तुम भीतर आती श्वास को भी जान सकते हो, लेकिन तुम दोनों के अंतराल को कभी नहीं जानते।

प्रयोग करो और तुम उस बिंदु को पा लोगे। उसे अवश्य पा सकते हो, वह है। तुम्हें या तुम्हारी संरचना में कुछ जोड़ना नहीं है, वह है ही। सब कुछ है, सिर्फ बोध नहीं है। कैसे प्रयोग करो? पहले भीतर आने वाली श्वास के प्रति होशपूर्ण बनो। उसे देखो। सब कुछ भूल जाओ और आने वाली श्वास को, उसके यात्रा—पथ को देखो। जब श्वास नासापुटों को स्पर्श करे तो उसको महसूस करो। श्वास को गति करने दो और पूरी सजगता से उसके साथ यात्रा करो। श्वास के साथ ठीक कदम से कदम मिलाकर नीचे उतरो, न आगे जाओ और न पीछे पड़ो। उसका साथ न छूटे, बिलकुल साथ साथ चलो।

स्मरण रहे, न आगे जाना है और न छाया की तरह पीछे चलना है समांतर चलो, युगपत। श्वास और सजगता को एक हो जाने दो। श्वास नीचे जाती है तो तुम भी नीचे जाओ। और तभी उस बिंदु को पा सकते हो जो दो श्वासों के बीच में है। यह आसान नहीं है। श्वास के साथ अंदर जाओ, श्वास के साथ बाहर जाओ।

बुद्ध ने इसी विधि का प्रयोग विशेष रूप से किया, इसलिए यह बौद्ध विधि बन गई। बौद्ध शब्दावली में इसे अनापानसती योग कहते हैं। और स्वयं बुद्ध की’ आत्मोपलब्धि इस विधि पर ही आधारित थी। संसार के सभी धर्म, संसार के सभी द्रष्टा किसी न किसी विधि के जरिए मंजिल पर पहुंचे हैं। और वे सब विधियां इन एक सौ बारह विधियों में सम्मिलित हैं। यह पहली विधि बौद्ध विधि है। दुनिया इसे बौद्ध विधि के रूप में जानती है, क्योंकि बुद्ध इसके द्वारा ही निर्वाण को उपलब्ध हुए थे।

बुद्ध ने कहां है अपनी श्वास प्रश्वास के प्रति सजग रहो, अंदर आती जाती श्वास के प्रति होश रखो। बुद्ध अंतराल की चर्चा नहीं करते, क्योंकि उसकी जरूरत नहीं है। बुद्ध ने सोचा और समझा कि अगर तुम अंतराल की, दो श्वासों के बीच के विराम की फिक्र करने लगे, तो उससे तुम्हारी सजगता खंडित होगी। इसलिए उन्होंने सिर्फ यह कहां कि होश रखो; जब श्वास भीतर आए तो तुम भी उसके साथ भीतर आओ और जब श्वास बाहर जाए तो तुम भी उसके साथ ही बाहर जाओ। इतना ही करो, श्वास के साथ—साथ तुम भी भीतर—बाहर चलते रहो। विधि के दूसरे हिस्से के संबंध में बुद्ध कुछ भी नहीं कहते हैं।

इसका कारण है। कारण यह है कि बुद्ध बहुत साधारण लोगों से, सीधे—सादे लोगों से बोल रहे थे। वे उनसे अंतराल की बात करते तो उससे लोगों में अंतराल को पाने की एक अलग कामना निर्मित हो जाती। और यह अंतराल को पाने की कामना बोध में बाधा बन जाती। क्योंकि अगर तुम अंतराल को पाना चाहते हो तो तुम आगे बढ़ जाओगे, श्वास भीतर आती रहेगी और तुम उसके आगे निकल जाओगे। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि अंतराल पर है जो भविष्य में है। बुद्ध कभी इसकी चर्चा नहीं करते; इसलिए बुद्ध की विधि आधी है।

लेकिन दूसरा हिस्सा अपने आप ही चला आता है। अगर तुम श्वास के प्रति सजगता का, बोध का अभ्यास करते गए तो एक दिन अनजाने ही तुम अंतराल को पा जाओगे। क्योंकि जैसे—जैसे तुम्हारा बोध तीव्र, गहरा और सघन होगा, जैसे—जैसे तुम्हारा बोध स्पष्ट आकार लेगा—जब सारा संसार भूल जाएगा, बस श्वास का आना—जाना ही एकमात्र बोध रह जाएगा—तब अचानक तुम उस अंतराल को अनुभव करोगे जिसमें श्वास नहीं है।

अगर तुम सूक्ष्मता से श्वास प्रश्वास के साथ यात्रा कर रहे हो तो उस स्थिति के प्रति अबोध कैसे रह सकते हो जहा श्वास नहीं है। वह क्षण आ ही जाएगा जब तुम महसूस करोगे कि अब श्वास न जाती है, न आती है। श्वास—क्रिया बिलकुल ठहर गई है। और उसी ठहराव में श्रेयस का वास है।

यह एक विधि लाखों करोड़ों लोगों के लिए पर्याप्त है। सदियों तक समूचा एशिया इस एक विधि के साथ जीया और उसका प्रयोग करता रहा। तिब्बत, चीन, जापान, बर्मा, श्याम, श्रीलंका, भारत को छोड्कर समस्त एशिया सदियों तक इस एक विधि का उपयोग करता रहा। और इस एक विधि के द्वारा हजारों हजारों व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हुए। और यह पहली ही विधि है। दुर्भाग्य की बात कि चूंकि यह विधि बुद्ध के नाम से संबद्ध हो गई, इसलिए हिंदू इस विधि से बचने की चेष्टा में लगे रहे। क्योंकि यह बौद्ध विधि की तरह बहुत प्रसिद्ध हुई, हिंदू इसे बिलकुल भूल ही बैठे। इतना ही नहीं, उन्होंने और एक कारण से उसकी अवहेलना की। क्योंकि शिव ने सबसे पहले इस विधि का उल्लेख किया, अनेक बौद्धों ने इस विज्ञान भैरव तंत्र के बौद्ध ग्रंथ होने का दावा किया है। वे इसे हिंदू ग्रंथ नहीं मानते।

यह न हिंदू है न बौद्ध, और विधि मात्र विधि है। बुद्ध ने इसका उपयोग किया, लेकिन यह उपयोग के लिए मौजूद ही थी। और इस विधि के चलते बुद्ध बुद्ध हुए। विधि बुद्ध से भी पहले थी, वह मौजूद ही थी। इसको प्रयोग में लाओ। यह सरलतम विधियों में से है, अन्य विधियों की तुलना में; मैं यह नहीं कहता कि यह विधि तुम्हारे लिए सरल है। अन्य विधियां अधिक कठिन होंगी। यही कारण है कि पहली विधि की तरह इसका उल्लेख हुआ है।

तंत्र सूत्र 

ओशो

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