Monday, October 5, 2015

कथा प्रसंग

 एक दिन वैशाली में विहार करते हुए भगवान ने भिक्षुओं से कहा भिक्षुओं सावधान। मैं आज से चार माह बाद परिनिवृत्त हो जाऊंगा। मेरी घड़ी करीब आ रही है मेरे विदा का क्षण निकट आ रहा है। इसलिए जो करने योग्य हो करो। देर मत करो।

ऐसी बात सुन भिक्षुओं में बड़ा भय उत्पन्न हो गया स्वाभाविक। भिक्षुसंघ महाविषाद में डूब गया। स्वाभाविक। जैसे अचानक अमावस हो गयी। भिक्षु रोने लगे छाती पीटने लगे। झुंड के झुंड भिक्षुओं के इकट्टे होने लगे और सोचने लगे और रोने लगे और कहने लगे अब क्या होगा? अब क्या करेंगे।

लेकिन एक भिक्षु थे, तिष्यस्थविर उनका नाम था वे न तो रोए और न किसी से कुछ बात ही करते देखे गए। उन्होंने सोचा शास्ता चार माह के बाद परिनिवृत्त होंगे और मैं अभी तक अवीतराग हू। तो शास्ता के रहते ही मुझे अर्हतत्व पा लेना कहिए। और ऐसा सोच वे मौन हो गए। ध्यान में ही समस्त शक्ति उंडेलने लगे। उन्हें अचानक चुप हो गया देख भिक्षु उनसे पूछते आवुस, आपको क्या हो गया है? क्या भगवान के जाने की बात से इतना सदमा पहुंचा? क्या आपकी वाणी खो गयी ‘ आप रोते क्यों नहीं? आप बोलते क्यों नहीं? भिक्षु डरने भी लगे कि कहीं पागल तो नहीं हो गए

आघात ऐसा था कि पागल हो सकते थे। जिनके चरणों में सारा जीवन समर्पित किया हो, उनके जाने की घड़ी आ गयी हो! जिनके सहारे अब तक जीवन की सारी आशाएं बांधी हों, उनके विदा का क्षण आ गया हो! तो स्वाभाविक था।

लेकिन तिष्य जो चुप हुए सो चुप ही हुए। वे इसका भी जवाब न देते। वे कुछ लत्तर ही न देते एकदम सन्नाटा हो गया।

अंतत: यह बात भगवान के पास पहुंची कि क्या हुआ है तिष्यस्थविर को? अचानक उन्होंने अपने को बिलकुल बंद कर लिया। जैसे कछुआ समेट लेता है। मापने को और अपने भीतर हो जाता है। ऐसा अपने को अपने भीतर समेट लिया है। यह कहीं कोई पागलपन का लक्षण तो नहीं। आघात कहीं इतना तो गहन नही पड़ा कि उनकी स्मृति खो गयी है वाणी खो गयी है?

भगवान ने तिष्यस्थविर को बुलाकर पूछा तो तिष्य ने सब बात बतायी अपना हदय कहा और कहा कि आपसे आशीर्वाद मांगता हूं कि मेरा संकल्प पूरा हो। आपके जाने के पहले तिष्यस्थविर विदा हो जाना चाहिए।.. मौत की नहीं मांग कर रहे हैं वे यह तिष्यस्थविर नाम का जो अहंकार है यह विदा हो जाना चाहिए….. मैं अपना प्राणपण लगा रहा हूं आपका आशीर्वाद चाहिए। अब न बोलूंगा न हिलूंगा न डोलुंगा क्योंकि सारी शक्ति इसी पर लगा देनी है चार माह! ज्यादा समय भी पास में नहीं। और आपने कहा भिक्षुको सावधान हो जाओ और जो करने योग्य है करो! तो यही मुझे करने योग्य लगा कि ये चार महीने जीवन की क्रांति के लिए लगा दूं पूरा लगा हूं। इस पार या उस पार। लेकिन यह कहने को न रह जाए कि मैने कुछ उठा रखा था। कि मैने कुछ छोड़ दिया था किया नहीं था।
बुद्ध ने तिष्य भिक्षु को आशीर्वाद दिया और भिक्षुओं से कहा भिक्षुओं जो मुझ पर स्नेह रखता है उसे तिष्य के समान ही होना चाहिए। यही तो है जो मैने कहा था कि करो, जो करने योग्य है करो सावधान मैं चार माह के बाद परिनिवृत्त हो जाऊंगा। रोने धोने से क्या होगा। रो धोकर तो जिंदगियां बिता दीं तुमने। चर्चा करने से क्या होगा! झुंड के झुंड बनाकर विचार करने से और विषाद करने से क्या होगा। तुम मुझे तो न रोक पाओगे मेरा जाना निश्चित है। रो रो कर तुम यह क्षण भी गंवा दोगे आंसू नहीं काम आएंगे। नौका बना लो। तिष्यस्थविर ने ठीक ही किया है। इसने मौन की नौका बना ली। इसी मौन की नौका से कोई तिरता है। इसीलिए तो हम साधु को मुनि कहते हैं। मुनि का अर्थ होता है जिसने मौन की नौका बना ली तिष्यस्थविर मुनि हो गया है।

गंध माला आदि से पूजा करने वाले मेरी पूजा नहीं करते। वह वास्तविक पूजा नहीं है। जो ध्यान के फूल मेरे चरणों में आकर चढ़ाता है वही मेरी पूजा करता है। ऐसा बुद्ध ने कहा। धर्म के अनुसार आचरण करने वाला ही मेरी पूजा करता है ऐसा बुद्ध ने कहा ध्यान ही मेरे प्रति प्रेम की कसौटी है। रोओ मत ध्याओ। रोओ नहीं ध्याओ



एस धम्मो सनंतनो 

ओशो

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