Thursday, October 1, 2015

प्रेम भी गणित की तरह हिसाब किताब से हो, तो होता ही नहीं। प्रेम तो जब होता है, तब अतिशय ही होता है।

महावीर के पास एक युवक आया है। और वह जानना चाहता है कि सत्य क्या है। तो महावीर कहते हैं कि कुछ दिन मेरे पास रह। और इसके पहले कि मैं तुझे कहूं, तेरा मुझसे जुड़ जाना जरूरी है।

एक वर्ष बीत गया है और उस युवक ने फिर पुन: पूछा है कि वह सत्य आप कब कहेंगे? महावीर ने कहा कि मैं उसे कहने की निरंतर चेष्टा कर रहा हूं लेकिन मेरे और तेरे बीच कोई सेतु नहीं है, कोई ब्रिज नहीं है। तू अपने प्रश्न को भी भूल और अपने को भी भूल। तू मुझसे जुड्ने की कोशिश कर। और ध्यान रख, जिस दिन तू जुड़ जाएगा, उस दिन तुझे पूछना नहीं पड़ेगा कि सत्य क्या है? मैं तुझसे कह दूंगा।

फिर अनेक वर्ष बीत गए। वह युवक रूपांतरित हो गया। उसके जीवन में और ही जगत की सुगंध आ गई। कोई और ही फूल उसकी आत्मा में खिल गए। एक दिन महावीर ने उससे पूछा कि तूने सत्य के संबंध में पूछना अनेक वर्षों से छोड़ दिया? उस युवक ने कहा, पूछने की जरूरत न रही। जब मैं जुड़ गया, तो मैंने सुन लिया। तो महावीर ने अपने और शिष्यों से कहा कि एक वक्त था, यह पूछता था, और मैं न कह पाया। और अब एक ऐसा वक्त आया कि मैंने इससे कहा नहीं है और इसने सुन लिया!

महावीर की परंपरा कहती है कि महावीर ने अपने गहनतम सत्य वाणी से उदघोषित नहीं किए, उन्होंने वाणी से नहीं कहे। जो सुन सकते थे, उन्होंने सुने; महावीर ने कहे नहीं।

यह बहुत मजेदार बात है। इससे उलटी बात भी सही है, कि जो नहीं सुन सकते हैं, उनसे महावीर कितना ही कहें, तो भी नहीं सुन सकते। सुनना एक बहुत बड़ी कला है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि तुझसे कहूंगा, क्योंकि तू अतिशय प्रेम से भरा है। अतिशय प्रेम! साधारण प्रेम भी कृष्‍ण ने नहीं कहा। कहा, अतिशय प्रेम। इतने प्रेम से भरा है, जहां आदमी प्रेम में पागल हो जाता है।
पागल होने से कम में वह घटना नहीं घटती, जिसे हम आंतरिक संबंध कहें। अगर प्रेम भी बुद्धिमान हो, तो होता ही नहीं। अगर प्रेम भी गणित की तरह हिसाब किताब से हो, तो होता ही नहीं। प्रेम तो जब होता है, तब अतिशय ही होता है।

एक मजे की बात है, प्रेम में कोई मध्य स्थिति नहीं होती; अतियां होती हैं, एक्सट्रीम्स होती हैं। या तो प्रेम होता ही नहीं, एक अति। और या प्रेम होता है, तो बिलकुल पागल होता है; दूसरी अति। प्रेम में मध्य नहीं होता। इसलिए प्रेम में बुद्धिमान आदमी खोजने बहुत मुश्किल हैं। कोई मध्य बिंदु नहीं होता।

कनफ्यूशियस ने कहा है कि बुद्धिमान आदमी मैं उसको कहता हूं जो मध्य में ठहर जाए। कनफ्यूशियस एक गांव में गया। गांव के रास्ते पर ही था कि एक गांव के निवासी से मिलना हुआ। तो कनफ्यूशियस ने पूछा कि तुम्हारे गांव में सबसे ज्यादा बुद्धिमान आदमी कौन है? तो उस आदमी ने उस आदमी का नाम लिया, जो गांव मे सबसे ज्यादा बुद्धिमान था। कनफ्यूशियस ने पूछा कि उसे बुद्धिमान मानने का कारण क्या है? तो उस ग्रामीण ने कहा, कारण है कि वह अगर एक कदम भी उठाए, तो तीन बार सोचता है। इसलिए गांव उसे बुद्धिमान कहता है। कनफ्यूशियस ने कहा कि मैं उसे बुद्धिमान न कहूंगा। क्योंकि जो एक ही बार सोचता है, वह कम बुद्धिमान है। और जो तीन बार सोचता है, वह दूसरी अति पर चला गया। दो बार सोचना काफी है। मध्य में रुक जाना चाहिए।

बुद्धिमान आदमी को मध्य में रुक जाना चाहिए। लेकिन प्रेम में कोई मध्य नहीं होता, इसलिए तथाकथित बुद्धिमान आदमी प्रेम से वंचित रह जाते हैं। प्रेम में होती है अति। कनफ्यूशियस खुद भी प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम में मध्य होता ही नहीं। या तो इस पार, या उस पार।

तो कृष्‍ण कहते हैं, तेरा अतिशय प्रेम है मेरे प्रति, इसलिए तुझसे कहूंगा। अतिशय, टु दि एक्सट्रीम, आखिरी सीमा तक, जहां अति हो जाती है।

जब प्रेम अतिशय होता है, तो सोचविचार बंद हो जाता है। और जहां सोचविचार बंद होता है, वहीं आंतरिक संवाद हो सकते हैं। जहां तक सोचविचार जारी रहता है, वहां तक संदेह काम करता है, वहां तक डाउट काम करता है।

अगर कृष्ण को परम वचन कहने हैं, तो ऐसी अवस्था चाहिए अर्जुन की, जहां सोच—विचार बंद हो। जहां अर्जुन सुने तो जरूर, सोचे नहीं। जहां अर्जुन खुला तो हो, लेकिन उसके भीतर विचारों की बदलिया न हों। जहां अर्जुन आतुर तो हो, लेकिन अपनी कोई धारणाएं न हों। जहां अर्जुन के पास अपने कोई सिद्धात न हों, अपनी कोई समझ न रह जाए।

शिष्य बनता ही कोई तभी है, जब उसे पता चलता है कि अपनी कोई समझ काम नहीं पड़ेगी। तभी समर्पण है, उसी अतिशय क्षण में समर्पण है।

 गीता दर्शन 

ओशो 

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