Thursday, October 1, 2015

आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो संधि स्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।

आठवीं श्वास विधि:

आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो संधिस्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।

न विधियों के बीच जरा जरा भेद है, जरा जरा अंतर है। और यद्यपि विधियों में वे जरा जरा से हैं, तो भी तुम्हारे लिए वे भेद बहुत हो सकते हैं। एक अकेला शब्द बहुत फर्क पैदा करता है।

‘आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो संधि स्थलों पर केंद्रित होकर.।’

भीतर आने वाली श्वास का एक संधिस्थल है जहां वह मुड़ती है और बाहर जाने वाली श्वास का भी एक संधिस्थल जहां वह मुड़ती है। इन दो संधिस्थलों जिनकी चर्चा हम कर चुके हैं के साथ यहां जरा सा भेद किया गया है। हालांकि यह भेद विधि में तो जरा सा ही है, लेकिन साधक के लिए बड़ा भेद हो सकता है। केवल एक शर्त जोड़ दी गई है ’आत्यंतिक भक्तिपूर्वक,’ और पूरी विधि बदल जाती है।

इसके प्रथम रूप में भक्ति का सवाल नहीं था। वह मात्र वैज्ञानिक विधि थी। तुम प्रयोग करो और वह काम करेगी। लेकिन लोग हैं जो ऐसी शुष्क वैतानिक विधियों पर काम नहीं करेंगे। इसलिए जो हृदय की ओर झुके हैं, जो भक्ति के जगत के हैं, उनके लिए जरा सा भेद किया गया है : ‘आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो संधिस्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।’

अगर तुम वैज्ञानिक रुझान के नहीं हो, अगर तुम्हारा मन वैज्ञानिक नहीं है, तो तुम इस विधि को प्रयोग में लाओ।
‘आत्यंतिक भक्तिपूर्वक’—प्रेम—श्रद्धा के साथ—’श्वास के दो संधिस्थलों पर केंद्रित होकर जाता को जान लो।’
यह कैसे संभव होगा? 

भक्ति तो किसी के प्रति होती है, चाहे वे कृष्ण हों या क्राइस्ट। लेकिन तुम्हारे स्वयं के प्रति, श्वास के दो संधिस्थलों के प्रति भक्ति कैसी होगी? यह तत्व तो गैरभक्ति वाला है। लेकिन व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर है। 

तंत्र का कहना है कि शरीर मंदिर है। तुम्हारा शरीर परमात्मा का मंदिर है, उसका निवास स्थान है। इसलिए इसे मात्र अपना शरीर या एक वस्तु न मानो। यह पवित्र है, धार्मिक है। जब तुम एक श्वास भीतर ले रहे हो तब तुम ही श्वास नहीं ले रहे हो, तुम्हारे भीतर परमात्मा भी श्वास ले रहा है। तुम चलते फिरते हो इसे इस तरह देखो तुम नहीं, स्वयं परमात्मा तुममें चल रहा है। तब सब चीजें पूरी तरह भक्तिपूर्ण हो जाती हैं।

अनेक संतों के बारे में कहां जाता है कि वे अपने शरीर को प्रेम करते थे, वे उसके साथ ऐसा व्यवहार करते थे, मानो वे शरीर उनकी प्रेमिकाओं के रहे हों। तुम भी अपने शरीर को यह व्यवहार दे सकते हो। उसके साथ यंत्रवत व्यवहार भी कर सकते हो। वह भी एक रुझान है, एक दृष्टि है। तुम इसे अपराधपूर्ण, पाप भरा और गंदा भी मान सकते हो। और इसे चमत्कार भी समझ सकते हो, परमात्मा का घर भी समझ सकते हो। यह तुम पर निर्भर है।

यदि तुम अपने शरीर को मंदिर मान सको तो यह विधि तुम्हारे काम आ सकती है ‘ आत्यंतिक भक्तिपूर्वक।’ इसका प्रयोग करो। जब तुम भोजन कर रहे हो तब इसका प्रयोग करो। यह न सोचो कि तुम भोजन कर रहे हो, सोचो कि परमात्मा तुममें भोजन कर रहा है। और तब परिवर्तन को देखो। तुम वही चीज खा रहे हो, लेकिन तुरंत सब कुछ बदल जाता है। अब तुम परमात्मा को भोजन दे रहे हो। तुम स्नान कर रहे हो, कितना मामूली सा काम है। लेकिन दृष्टि बदल दो, अनुभव करो कि तुम अपने में परमात्मा को स्नान करा रहे हो। तब यह विधि आसान होगी।

‘आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो संधिस्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।’

 तंत्र सूत्र 

ओशो 

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