Saturday, October 3, 2015

“आपने कहा कि अर्जुन कृष्ण के प्रति समर्पित हुए इसलिए यंत्रवत न होकर स्वतंत्र हुए। विवेकानंद रामकृष्ण के प्रति समर्पित होकर भी यंत्रवत रहे, आत्मवान न हो पाए, इसका क्या कारण है?’


सके कारण हैं। रामकृष्ण और विवेकानंद के बीच का जो संबंध है, पहली तो बात गुरु और शिष्य के बीच का संबंध है। कृष्ण और अर्जुन के बीच जो संबंध है, वह गुरु-शिष्य का संबंध नहीं। दूसरी बात, कृष्ण की पूरी चेष्टा अर्जुन के द्वारा जगत को कोई संदेश देने की नहीं, विवेकानंद के द्वारा जगत तक संदेश पहुंचाने की है। कृष्ण को तो पता भी नहीं है कि वह जो कह रहे हैं वह गीता बन जाएगी। यह आकस्मिक घटना है कि वह बन गई। कृष्ण ने तो सहज ही युद्ध के स्थल पर खड़े होकर कहा होगा। यह तो पता भी नहीं होगा कि यह वक्तव्य जो है, इतना कीमती हो जाएगा और सदियों तक आदमी इस पर सोचेंगे। यह कहा तो गया था सिर्फ अर्जुन के लिए निपट, उसके सोचने के लिए था। यह नहीं था कि यह दुनिया को जाकर कहेगा। यह अर्जुन को बदलने के लिए थी यह खबर। यह उसके लिए ही था निपट। यह बड़ी “इंटीमेट’ चर्चा थी। यह दो व्यक्तियों के बीच सहज व्यक्तिगत बातचीत थी। और मेरा अपना अनुभव यह है कि इस जगत में जितना भी महत्वपूर्ण है, वह सदा “इंटीमेट डायलाग’ है। सदा। इसलिए लिखनेवाला कभी उस गहराई को उपलब्ध नहीं होता जो बोलनेवाला होता है। इसलिए दुनिया में जो भी श्रेष्ठ है, वह बोला गया है।

इधर आप हम सुबह बात करते थे–अरविंद ने कुछ भी नहीं बोला है, सब लिखा है। कृष्ण ने, क्राइस्ट ने, बुद्ध ने, महावीर ने, रमण ने, कृष्णमूर्ति ने सब बोला है। बोलने का माध्यम “पर्सनल’ है, लिखने का माध्यम “इम्पर्सनल’ है। लिखते हम किसी के लिए नहीं–पत्रों को छोड़कर। बाकी सब हम किसी के लिए नहीं लिखते। कौन है “रिसीवर’ उसका कोई पता नहीं होता। “एब्सट्रैक्ट’ है। लेकिन बोलने का माध्यम तो बड़ा व्यक्तिगत है, निजी है–हम किसी से बोलते हैं। तो कृष्ण तो अर्जुन से बोल रहे हैं सीधे। जगत का कोई सवाल नहीं है यहां। यहां दो मित्रों के बीच एक बात हो रही है। रामकृष्ण के साथ स्थिति और है। और कारण है स्थिति का। जैसा मैंने सुबह कहा, उसे थोड़ा खयाल में लेंगे तो समझ में आ जाएगा।

रामकृष्ण को अनुभव तो हुआ, लेकिन रामकृष्ण के पास वाणी बिलकुल नहीं थी। और रामकृष्ण को जीवन भर यही पीड़ा थी कि कोई मुझे मिल जाए जो वाणी दे दे। जो वह जानते थे, वह बोल नहीं सकते थे। रामकृष्ण एकदम अशिक्षित, अपढ़, शायद दूसरी बंगाली क्लॉस पता नहीं पास कि फेल। इतना उनका शिक्षण है। जान तो लिया उन्होंने बहुत, लेकिन इसको कहें कैसे! इसके लिए उनके पास शब्द नहीं, सुविधा नहीं, व्यवस्था नहीं। तो कोई चाहिए जिसके पास शब्द हों, सुविधा हो, व्यवस्था हो। विवेकानंद के पास तर्क है, वाणी है, अभिव्यक्ति है। रामकृष्ण के पास अनुभव है, तर्क नहीं है, वाणी नहीं है, अभिव्यक्ति नहीं है। 

रामकृष्ण के जो वक्तव्य भी हमें उपलब्ध हैं आज, वे बहुत काट-छांटकर और सुधार कर किए गए हैं। क्योंकि रामकृष्ण तो देहाती आदमी थे, वह बोलने में गाली भी दे देते थे। गाली भी बक देते थे। वह तो देहात के आदमी थे! जैसा देहात में सहज आदमी बोलता है वैसा बोलते थे। वे सब गालियां काटनी पड़ीं। मैं तो नहीं मानता कि ठीक हुआ, उनको होना चाहिए। “आथेंटिक’ होनी चाहिए “रिपोर्ट’। जो उन्होंने कहा था वैसी होनी चाहिए थी। ठीक है, वह देते थे गाली, इसकी क्या बात है! और गाली ऐसी क्या बुरी है, होना चाहिए वहां। लेकिन हमारे मन में डर लगेगा कि साधु और गाली दे रहा हो, परमहंस! उसको अलग कर दें। इसलिए बहुत काट-छांटकर रामकृष्ण को पेश करना पड़ा है।

रामकृष्ण के पास संदेश के लिए कोई सुविधा नहीं थी। इसलिए रामकृष्ण बिलकुल गूंगे थे। विवेकानंद जब रामकृष्ण के पास आए तो रामकृष्ण को आशा बंधी के यह व्यक्ति जो मेरे भीतर घटा है उसे दुनिया तक कह सकेगा। इसलिए विवेकानंद को “इन्स्ट्रूमेंट’ बनना पड़ा।

और एक घटना आपको कहूं जिससे खयाल में आ जाए।

विवेकानंद को समाधि की बड़ी आकांक्षा थी। तो रामकृष्ण ने उन्हें समाधि का प्रयोग समझाया, करवाया। रामकृष्ण महिमाशाली थे, उनकी मौजूदगी भी किसी के लिए समाधि बन सकती थी। उनके स्पर्श से भी बहुत कुछ हो सकता था। उतना जीवंत व्यक्तित्व था। जिस दिन पहली दफे विवेकानंद को समाधि का अनुभव हुआ, विवेकानंद ने क्या किया? उस आश्रम में कालू नाम का एक आदमी था। यह दक्षिणेश्वर के मंदिर के पास ही रहता था। बहुत भोला-भाला आदमी था। मंदिरों के पास जब तक भोले-भाले आदमी रहें, तभी तक मंदिरों की सुरक्षा है। जिस दिन वहां चालाक आदमी पहुंचते हैं उस दिन तो सब खराब हो जाता है। वह कालू बड़ा भोला-भाला आदमी था। उसको दिन भर पूजा में लग जाता था, क्योंकि उसके कमरे में जमाने भर के देवी-देवता थे–एकाध-दो नहीं थे। जो भी देवी-देवता मिलते थे, कालू उनको ले आते थे। उसके कमरे में कालू के लिए जगह ही नहीं बची थी, वह बाहर सोते थे। जो भी भगवान के चक्कर में पड़ेगा, एक दिन बाहर सोना पड़ेगा, क्योंकि भगवान भीतर सब जगह घेर लेता है। तो वह इतनी दिक्कत में पड़ गया था कि उसके पास सैकड?ो भगवान थे। तरहत्तरह के भगवान थे। जहां जो भगवान मिले, ले आए। अब वह सुबह से पूजा शुरू करता तो सांझ हो जाती, क्योंकि सभी की पूजा करनी पड़ती थी।
 
विवेकानंद ने उसे कई दफे समझाया कि कालू, तू बड़ा नासमझ है, फेंक इन सबको। भगवान तो अदृश्य है। वह तो सब जगह मौजूद है। वह कहता होगा, पहले हम अपने कोठे से निपट लें। बाकी वह बेचारा सीधा-साधा आदमी था। विवेकानंद ने बहुत उसको तर्क दिए। लेकिन सीधे-सादे आदमी को तर्क भी नहीं दिए जा सकते। वह हंसता था, वह कहता था ठीक कहते हो, लेकिन अब जिनको ले ही आए, अब इनका स्वागत-सत्कार तो करना ही पड़ेगा। कई दफे उसको कहा कि फेंक, ये कहां के अत्थर-पत्थर इकट्ठे कर रखे हैं–कहीं छोटे शंकर, बड़े शंकर, न-मालूम क्या-क्या, यह क्या तूने किया है? और दिन भर इसी में गंवाता है, किसी को टीका लगता है, कभी घंटा बजाता है, तेरा समय इसमें जाया हो रहा है। वह कालू कहता कि औरों का समय जिसमें जाया हो रहा है, मेरा इसमें जाया हो रहा है, और तो कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा है। बाकी हर्ज क्या रहेगा आखिर में!


जिस दिन विवेकानंद को पहला दफा समाधि लगी, अचानक भीतर शक्ति की ऊर्जा का जन्म हुआ और विवेकानंद को जो पहला खयाल आया वह यह आया कि अगर इस ऊर्जा के क्षण मैं कह दूं कालू को कि फेंक अपने भगवानों को, तो रोक नहीं सकेगा। “टेलीपैथिक’ हुआ। उन्होंने ऐसा सोचा, उधर बेचारे कालू, सीधे-सादे आदमी को संदेश मिल गया। उसने बांधी पोटली अपने सब भगवानों की और चला गंगा की तरफ फेंकने। यह तो मन में ही सोचा था विवेकानंद ने, यह तो अपने कमरे में बंद थे, लेकिन जब ऊर्जा जगी–तो यह समझ ही लेना कि जब ऊर्जा जगे, तो भूलकर भी उसका उपयोग मत करना। अन्यथा भारी नुकसान होता है। उसे जगने देना, बस उसका जगना ही उसका उपयोग है। उसका कोई उपयोग मत करना। विवेकानंद ने तत्काल उपयोग किया और जिस कालू को वह तर्क से नहीं समझा सके थे, उसके साथ पीछे के रास्ते से उपद्रव किया। उनको खयाल भी नहीं था, उन्होंने सिर्फ सोचा ही कि अगर इस वक्त मैं कालू को कह दूं कि उठ कालू और फेंक सब, तो इतनी ऊर्जा मेरे भीतर है कि अब कालू बच नहीं सकेगा। यह उन्होंने सोचा ही। उधर कालू ने अपना पूजा-मूजा कर रहा था, उसने सब पोटली बांधी, सब भगवानों को कंधे पर टांगकर वह बाहर निकला। रामकृष्ण ने उसे कहा कि पागल, अंदर ले जा। उसने कहा कि सब बेकार है। रामकृष्ण ने कहा, कालू, यह तू नहीं बोलता है। यह कोई और बोल रहा है। तू भीतर चल। मैं उसको देखता हूं शैतान को जो बोल रहा है।
 
वह भागे गए, दरवाजा तोड़ा और विवेकानंद को हिलाया और कहा कि बस, यह तुम्हारी आखिरी समाधि हुई, अब आगे तुम्हें समाधि की अभी जरूरत नहीं है। और यह कुंजी मैं अपने पास रखे लेता हूं। यह तुम्हारी समाधि की चाभी मैं अपने पास रखे लेता हूं। मरने के तीन दिन पहले लौटा दूंगा। विवेकानंद बहुत चिल्लाए और रोए कि आप यह क्या करते हैं, मुझे समाधि दें। रामकृष्ण ने कहा कि अभी तुझसे और बहुत काम लेने हैं। अभी तू समाधि में गया तो बिलकुल चला जाएगा। और वह काम जो चाहिए वह नहीं हो पाएगा। अभी तुझे मैंने जाना है वह सारी दुनिया तक पहुंचाना है। और तू मोह मत कर और तू स्वार्थी मत बन। तुझे एक और वृक्ष बनना है, वट वृक्ष, जिसके नीचे हजारों लोगों को विश्राम मिल सके और छाया मिल सके। इसलिए तेरी चाबी अपने पास रखे लेता हूं। यह चाबी पास रख ली गई। मरने के तीन दिन पहले यह विवेकानंद को वापिस मिली। मरने के तीन दिन पहले उनको दुबारा समाधि उपलब्ध हुई।

लेकिन इसमें जो मैं कहना चाहता हूं वह यह कि जिस समाधि की चाबी रखी जा सके, वह समाधि “साइकिक’ से ज्यादा नहीं हो सकती। जो समाधि किसी दूसरे के हां या ना कहने पर निर्भर हो, वह गहरे मनस से ज्यादा नहीं हो सकती, मनस-पार नहीं हो सकती। मन के पार की नहीं हो सकती। और जिस समाधि में कालू को मूर्तियां फेंकने का खयाल आ जाए, वह समाधि बहुत आत्मिक नहीं हो सकती। उसका कोई कारण नहीं है आने का।

तो विवेकानंद को जो समाधि घटी, वह मानसिक है। शरीर से बहुत ऊपर है, लेकिन आत्मा से बहुत नीचे है। और फिर रामकृष्ण की जो तकलीफ थी, उसकी वजह से विवेकानंद को रोकना जरूरी था कि वह और गहरे न चले जाएं, अन्यथा कौन उस संदेश को लेकर जाता। आज रामकृष्ण को हम जानते हैं तो सिर्फ विवेकानंद की वजह से। लेकिन विवेकानंद को बड़ी कुर्बानी करनी पड़ी। लेकिन इस विराट जगत के लिए वैसी कुर्बानी अर्थपूर्ण है। और रामकृष्ण को विवेकानंद को रोकना पड़ा “साइकिक’ पर कि वह आगे न चले जाएं, अन्यथा फिर विवेकानंद को राजी नहीं किया जा सकता था। और रामकृष्ण की दुविधा यही थी कि बुद्ध को जो दोनों एक साथ मिले हैं, वह रामकृष्ण को–अकेले हैं वह, जानना तो मिल गया है, बताना नहीं है उनके पास। वह उसे नहीं बता सकते। इसलिए किसी और आदमी के कंधे का सहारा लेना पड़ा। रामकृष्ण विवेकानंद के कंधों पर बैठकर ही यात्रा किए हैं। इसलिए इसमें मैं मानता हूं कि विवेकानंद “इन्स्ट्रूमेंट’ बने, बनाए गए। लेकिन कृष्ण अर्जुन को “इन्स्ट्रूमेंट’ नहीं बना रहे हैं। कोई बात ही नहीं है उसमें, वह सिर्फ कह रहे हैं, उसको प्रकट कर रहे हैं।


कृष्ण स्मृति 

ओशो 

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