Tuesday, October 27, 2015

सहानुभूति की आकांक्षा

यह समाज पूरा का पूरा, सुखी आदमी को सत्कार नहीं देता। तुम्हारे घर में आग लग जाए, पूरा गांव सहानुभूति प्रगट करने आता है-आता है न? दुश्मन भी आते हैं। अपनों की तो बात ही क्या, पराए भी आते हैं। मित्रों की तो बात क्या, शत्रु भी आते हैं। सब सहानुभूति प्रगट करने आते हैं कि बहुत बुरा हुआ। चाहे दिल उनके भीतर प्रसन्न भी हो रहे हों, तो भी सहानुभूति प्रगट करने आते हैं बहुत बुरा हुआ। तुम अचानक सारे गांव की सहानुभूति के केंद्र हो जाते हो।

तुम जरा एक बड़ा मकान बनाकर गांव में देखो! सारा गांव तुम्हारे विपरीत हो जाएगा। सारा गांव तुम्हारा दुश्मन हो जाएगा। क्योंकि सारे गांव की ईष्या को चोट पड़ जाएगी। तुम जरा सुंदर गांव में मकान बनाओ, सुंदर बगीचा लगाओ। तुम्हारे घर में बांसुरी बजे, वीणा की झंकार उठें। फिर देखें, कोई आए सहानुभूति प्रगट करने! मित्र भी पराए हो जाएंगे। शत्रु तो शत्रु रहेंगे ही, मित्र भी शत्रु हो जाएंगे। उनके भीतर भी ईष्या की आग जलेगी, जलन पैदा होगी। इसलिए हम सुखी आदमी को सम्मान नहीं दे पाते। इसलिए हम जीसस को सम्मान न दे पाए, सूली दे सके। हम महावीर को सम्मान न दे पाए, कानों में खीले ठोंक सके। हम सुकरात को सम्मान न दे पाए, जहर पिला सके।

तुम देखते हो, मेरे साथ इस देश में जो व्यवहार हो रहा है, उसका कुल कारण इतना है कि मैं उनकी सहानुभूति नहीं मांग रहा। इसका कुल कारण इतना है कि मैं उनकी सहानुभूति का पात्र नहीं हूं। मैं उनकी सहानुभूति का पात्र हो जाऊं, वे सब सम्मान से भर जाएंगे। लेकिन मैं प्रसन्न हूं, आनंदित हूं, रसमग्न हूं। मैं ईश्वर के ऐश्वर्य से मंडित हूं। कठिनाई है! मैं फूलों की सेज पर सो रहा हूं और वे केवल कांटों की सेज पर सोने वाले आदमी को ही सम्मान देने के आदी हो गए हैं। इसलिए उनका विरोध स्वाभाविक है। वे खुद रुग्ण हैं। उनका पूरा चित्त हजारों साल की बीमारियों से ग्रस्त है।

इस जगत ने आज तक आनंदित व्यक्ति को सम्मान नहीं दिया है। यह सिर्फ दुखी व्यक्तियों को सम्मान देता है। उनको त्यागी कहता है। उनको महात्मा कहता है। इस वृत्ति से सावधान होना, यह तुम्हारे भीतर समाज ने डाल दी है। तुम जब रूखे—सूखे वृक्ष हो जाओगे और तुम्हारे पत्ते झड़ जाएंगे और तुममें फूल न लगेंगे, तब यह समाज तुम्हें सम्मान देगा।

और मैं तुमसे कहता हूं: इस सम्मान को दो कौड़ी का समझकर छोड़ देना। चाहे यह सारा समाज तुम्हारा अपमान करे, लेकिन हरे भरे होना, फूल खिलने देना। पक्षी तुम्हारा सम्मान करेंगे, चांदत्तारे तुम्हारा सम्मान करेंगे, सूरज तुम्हारा सम्मान करेगा, आकाश तुम्हारे सामने नतमस्तक होगा। छोड़ो फिक्र आदमियों की, आदमी तो बीमार है। आदमियों का यह समूह तो बहुत रुग्ण हो गया है। और यह एक दिन की बीमारी नहीं है लंबी बीमारी है, हजारों हजारों साल की बीमारी है। इसके बाहर कोई मुश्किल से छूट पाता है।

मनुष्य ने अपने दुख में बहुत स्वार्थ जोड़ लिए हैं। तुमने देखा, इसलिए लोग अपनी व्यथा की कहानियां खूब बढ़ा चढ़ाकर कहते हैं। अपने दुख की बात लोगों को खूब बढ़ा चढ़ाकर कहते हैं। इसीलिए कि दुख की बात जितनी ज्यादा करेंगे, उतना ही दूसरा आदमी पीठ थपथपाएगा, सहानुभूति देगा। लोग सहानुभूति के लिए दीवाने हैं, पागल हैं। और सहानुभूति से कुछ मिलने वाला नहीं है। क्या होगा सार अगर सारे लोग भी तुम्हारी तरफ ध्यान दे दें?

तुमने कहानी तो सुनी है न, कि एक गरीब औरत ने बामुश्किल आटा पीस पीसकर सोने की चूड़ियां बनवाईं। चाहती थी कि कोई पूछे कितने में लीं? कहां बनवाईं? कहां खरीदीं? मगर कोई पूछे ही न; सुख को तो कोई पूछता ही नहीं! घबड़ा गई, परेशान हो गई; बहुत खनकाती फिरी गांव में, मगर किसी ने पूछा ही नहीं। जिसने भी चूड़ियां देखीं, नजर फेर ली। आखिर उसने अपने झोपड़े में आग लगा दी। सारा गांव इकट्ठा हो गया। और वह छाती पीट पीटकर, हाथ जोर से ऊंचे उठा उठाकर रोने लगी लुट गई, लुट गई! उस भीड़ में से किसी ने पूछा कि अरे, तू लुट गई यह तो ठीक, मगर सोने की चूड़ियां कब तूने बना लीं? तो उसने कहा: अगर पहले ही पूछा होता तो लुटती ही क्यों! यह आज झोपड़ा बच जाता, अगर पहले ही पूछा होता।

सहानुभूति की बड़ी आकांक्षा है कोई पूछे, कोई दो मीठी बात करे। इससे सिर्फ तुम्हारे भीतर की दीनता प्रगट होती है, और कुछ भी नहीं। इससे सिर्फ तुम्हारे भीतर के घाव प्रगट होते हैं, और कुछ भी नहीं। सिर्फ दीनऱ्हीन आदमी सहानुभूति चाहता है। सहानुभूति एक तरह की सांत्वना है, एक तरह की मलहम पट्टी है। घाव इससे मिटता नहीं, सिर्फ छिप जाता है। मैं तुम्हें घाव मिटाना सिखा रहा हूं।

 

कहे वाजिद पुकार 

ओशो 

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