Sunday, December 6, 2015

देखा विष्णु को, सो रहे हैं क्षीर-सागर में! लगाया बिस्तर क्षीर-सागर में! कथा प्रीतिकर है!

क्षीर-सागर का अर्थ है: अमृत का सागर, जिसका कोई अंत नहीं आता। उस पर बिस्तर लगा है। और बिस्तर किसका है? शेषनाग का। उसने कुंडली मारी है।

नाग प्रतीक है तुम्हारी ऊर्जा का, कुंडलिनी का, तुम्हारे भीतर छिपी हुई ऊर्जा का। उसी ऊर्जा की कुंडली मारकर अनंत के सागर पर जो बिस्तर लगाकर लेट गया है…! लक्ष्मी उसके पैर दबाती है! सारे सुख उसके पैर दबाने लगते हैं। सब वैभव सहज ही उसे उपलब्ध हो जाते हैं। नहीं कि वह उनकी चेष्टा करता है। जब तक चेष्टा है तब तक दुख ही पैर दबाता है। जब तक चेष्टा है, वासना है, तब तक पीड़ा ही हाथ आती है। जब तक मांगना है, तब तक परम संपदा नहीं मिलती।

यहां मांगने से भीख नहीं मिलती, परम संपदा कहां मिलेगी! परम संपदा मिलती है सम्राटों को, जिन्होंने भीतर के क्षीर-सागर पर अपनी ही ऊर्जा के शेषनाग की कुंडलिनियों पर विश्राम लगा दिया है, बिस्तर लगा दिया है।

नहीं, बाहर कोई जगह नहीं है इस जीवन के मरुस्थल में जहां विश्राम मिल सके। यहां तो दौड़ना ही दौड़ना होगा। यहां तो हर बिंदु जो विश्राम का मालूम पड़ता है, केवल नयी दौड़ का प्रारंभ सिद्ध होता है। सोचकर आते हैं कि अब, अब विश्राम का क्षण आया; पहुंचते-पहुंचते विश्राम का क्षितिज और आगे सरक जाता है।

वासना में कभी किसी ने विश्राम नहीं जाना। विश्राम वहां नहीं है। विराम वहां नहीं है, राम वहां नहीं है। विश्राम तो भीतर है जहां तृष्णा शून्य हो जाती है।

जिन सूत्र 

ओशो

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