Sunday, January 24, 2016

क्षुद्र को तो पहचानते हो, विराट को कैसे पहचानोगे?

क्षुद्र को तुम पहचानते हो। महान से तुम्हारा कोई परिचय नहीं। क्षुद्र की ही तुम्हारी भाषा है। महान के साथ तुम्हारी भाषा एकदम अड़चन में पड़ जाती है। या तो तुम मौन हो जाओ तो महान तुम्हारे भीतर छा जाए, थोड़ा सा स्वाद तुम्हारी छाती में लगे। अगर तुम बोलते ही चले जाओ तो महान की जो भी चर्चा है वह मूढ़ता जैसी मालूम पड़ेगी। इसलिए परम ज्ञानी अक्सर पागल मालूम हुए हैं। और तुम्हारी भीड़ है। अगर तुम ही तय करने वाले हो तो एक ज्ञानी की कौन सुनेगा? तुम सब मताधिकारी हो। तुम मत डाल सकते हो, वोट डाल सकते हो, और तय कर सकते हो कि यह आदमी पागल है। क्योंकि यह जो बातें कह रहा है वे तुम्हारे मन से बड़ी हैं। या तो तुम मन को छोड़ने को राजी होओ तो इन बातें को समझ लो। अगर तुम मन को ही पकड़ते हो तो ये बातें इतनी बड़ी हैं। यह ऐसे ही है जैसे कोई चुल्लू में सागर को भरने की कोशिश कर रहा हो, या कोई मुट्ठी में आकाश को पकड़ने निकला हो, और न पकड़ पाए तो कहे कि आकाश है ही नहीं।

महान बातों की एक कठिनाई है कि महान बातें विरोधाभासी होती हैं, पैराडाक्सिकल होती हैं। क्षुद्र बातें तर्कयुक्त होती हैं। क्षुद्र बातों का तर्क बिलकुल सीधा-साफ होता है। जितनी विराट होने लगती है बात उतनी ही अतर्क्य  होने लगती है। क्योंकि विराट अतर्क्य है। सामान्य जीवन में रात अलग है, दिन अलग है; जन्म अलग है, मृत्यु अलग है। विराट में तो दोनों इकट्ठे हैं; जन्म भी उसी में, मृत्यु भी उसी में। वहां तुम जन्म और मृत्यु को अलग-अलग न रख पाओगे। वहां तुम्हारे खंड करने की जो बुद्धिमत्ता है वह व्यर्थ हो जाएगी। वहां तो अखंड का निवास है। वहां तो मृत्यु में जन्म छिपा है, जन्म में मृत्यु छिपी है। वहां तो मृत्यु भी जन्म का एक चेहरा है, और जन्म भी मृत्यु का एक ढंग है, वेश है। वहां तो सब विरोध गिर जाते हैं। और जहां विरोध गिर जाते हैं वहां मुश्किल हो जाती है।


ताओ उपनिषद 

ओशो 
 

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