Saturday, January 2, 2016

खोपड़ी से मत सोचो.....

  .... सच में तो, सोचो ही मत। बस बढ़ो। कुछ परिस्‍थितियों में इसे करके देखो। यह कठिन होगा, क्‍योंकि सोचने की पुरानी आदत होगी। तुम्‍हें सजग रहना पड़ेगा कि सोचना नहीं है। बस भीतर से महसूस करना है कि मन में क्‍या आ रहा है। कई बार तुम उलझन में पड़ सकते हो कि यह अंतर्विवेक से उठ रहा है। या मन की सतह से आ रहा है। लेकिन जल्‍दी ही तुम्‍हें अंतर पता लगना शुरू हो जाएगा।


जब भी कुछ तुम्‍हारे भीतर से आता है तो वह तुम्‍हारी नाभि से ऊपर की और उठता है। तुम उसके प्रवाह, उसकी उष्‍णता को नाभि से ऊपर उठते हुए अनुभव कर सकते हो। जब भी तुम्‍हारा मन सोचता है तो वह ऊपर-ऊपर होता है। सिर में होता है और फिर नीचे उतरता है। तुम्‍हारा मन सोचता है तो वह ऊपर-ऊपर होता है, सिर में होता है। और फिर नीचे उतरता है। यदि तुम्‍हारा मन कुछ सोचता है तो उसे नीचे धक्‍का देना पड़ता है। यदि तुम्‍हारा अंतर्विवेक कोई निर्णय लेता है तो तुम्‍हारे भीतर कुछ उठता है। वह तुम्‍हारे अंतरतम से तुम्‍हारे मन की और आता है। मन उसे ग्रहण करता है। पर वह निर्णय मन का नहीं होता। वह पार से आता है। और यही कारण है कि मन उससे डरता है। बुद्धि उस पर भरोसा नहीं कर सकती। क्‍योंकि वह गहरे से आता है बिना किसी तर्क के बिना किसी प्रमाण के बस उभर आता है।


तो किन्‍हीं परिस्‍थितियों में इसे करके देखो। उदाहरण के लिए, तुम जंगल में रास्‍ता भटक गए हो तो इसे करके देखो। सोचो मत बस, अपने आँख बंद कर लो, बैठ जाओ। ध्‍यान में चले जाओ। और सोचो मत। क्‍योंकि वह व्‍यर्थ है; तुम सोच कैसे सकते हो? तुम कुछ जानते ही नहीं हो। लेकिन सोचने की ऐसी आदत पड़ गई है कि तुम तब भी सोचते चले जाते हो। जब सोचने से कुछ भी नहीं हो सकता है। सोचा तो उसी के बारे में जा सकता है, जो तुम पहले से जानते हो, तुम जंगल में रास्‍ता खो गए हो, तुम्‍हारे पास कोई नक्‍शा नहीं है, कोई मौजूद नहीं है जिससे तुम पूछ लो। अब तुम क्‍या सोच सकते हो। लेकिन तुम तब भी कुछ न कुछ सोचोगे। वह सोचना बस चिंता करना ही होगा। सोचना नहीं होगा। और जितनी तुम चिंता करोगे उतना ही अंतर्विवेक कम काम कर पाएगा।


तो चिंता छोड़ो, किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ और विचारों को विदा हो जाने दो। बस प्रतीक्षा करो, सोचो मत। कोई समस्‍या मत खड़ी करो, बस प्रतीक्षा करो। और जब तुम्‍हें लगे कि निर्विचार का क्षण आ गया है, तब खड़े हो जाओ और चलने लगो। जहां भी तुम्‍हारा शरीर जाए उसे जाने दो। तुम बस साक्षी बने रहो। कोई हस्‍तक्षेप मत करो। खोया हुआ रास्‍ता बड़ी सरलता से पाया जा सकता है, लेकिन एकमात्र शर्त है कि मन के द्वारा हस्‍तक्षेप न हो।

ज्ञान तो ह्रदय से आता है, बुद्धि से नहीं। ज्ञान तुम्‍हारी आत्‍मा के अंतरतम से उठता है। मस्‍तिष्‍क से नहीं। अपनी खोपड़ी को अलग हटा कर रख दो और आत्‍मा का अनुसरण करो, चाहे वह जहां भी ले जाए। अगर वह खतरे में भी ले जाए तो खतरे में जाओ क्‍योंकि वही तुम्‍हारे लिए और तुम्‍हारे विकास के लिए मार्ग होगा। खतरे से तुम विकसित होओगे और पकोगे। यदि अंतर्विवेक तुम्‍हें मृत्‍यु की और भी ले कर जाये तो उसके पीछे जाओ। क्‍योंकि वहीं तुम्‍हारा मार्ग होगा। उसका अनुसरण करो,उसमें श्रद्धा करो और उस पर चल पड़ो।


विज्ञान भैरव तंत्र 

ओशो 

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