Saturday, January 23, 2016

उत्तम तत्वचिंतैव- शब्दों की व्यर्थता

एक होटल में मुल्ला नसरुद्दीन ने प्रवेश किया। गर्मी के दिन हैं, सूरज से आग बरसती है। थका मादा पसीना पसीना आकर होटल में बैठा। मैनेजर ने आकर कहा कि क्या आपकी सेवा करें?

मैनेजर था कुछ दार्शनिक वृत्ति का व्यक्ति। फुरसत के समय में दर्शन पढ़ा करता था। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘कुछ और नहीं। सबसे पहले तो पानी का एक गिलास।’

मैनेजर ने कहा, ‘क्षमा करें। कांच का गिलास तो दे सकता हूं पानी का गिलास कहां से लाऊं!’

पानी का गिलास होता ही नहीं। कहते हम सब हैं ’पानी का गिलास’, काम चल जाता है। समझनेवाला समझ लेता है।

ऐसे ही समझना इस सूत्र के प्रारंभ को ‘पानी के गिलास’ की भांति। इस पर अटक मत जाना।’उत्तम तत्वचिंतैव - उत्तम है तत्व का चिंतन।’

ऐसा मत सोच लेना कि तत्व का कोई चिंतन होता है। तत्व का कोई चिंतन होता ही नहीं; तत्व का तो अनुभव होता है। और अनुभव भी तब होता है, जब चिंतन शून्य हो जाता है।
 
लेकिन किसी भी शब्द का उपयोग करो, कठिनाई खड़ी हो जाती है। अगर कहो, तत्व का ध्यान उपद्रव शुरू हुआ क्योंकि ध्यान भी तो तुम किसी विषय का करते हो। धन का लोभी, धन का ध्यान करता है। काम से पीड़ित, काम का ध्यान करता है। तत्व का कैसे ध्यान होगा? ध्यान भी तो विषय  का होता है।
 
मेरे पास लोग आकर पूछते हैं, ‘किसका ध्यान करें? राम का, कृष्ण का, बुद्ध का, महावीर का किसका ध्यान करें? कौनसा ध्यान सार्थक होगा?’ शब्द ने भरमाया। शब्द ने खूब भरमाया है, सदियों से उलझाया है। जंगलों में भटके लोग तो कभी न कभी घर लौट आते हैं ,शब्दों में भटके लोग जन्मोंजन्मों तक भटकते रहते हैं। फिर शब्दों में और और शब्द लगते चले जाते हैं।

शब्दों में और नयी नयी शाखाएं निकल आती हैं, नये नये पत्ते, नये नये फूल। शब्दों की शृंखला का कोई अन्त ही नहीं है।

यह पूछना कि ‘किसका ध्यान करें?’ बुनियादी रूप से गलत सवाल है। मगर मैं उनकी मजबूरी समझता हूं। वे हमेशा बाहर की भाषा में ही सोच सकते हैं, क्योंकि सारी भाषा ही: बाहर के लिए है। भीतर तो मौन है। भीतर की तो कोई भाषा होती नहीं। भीतर तो भाषा की कोई जरूरत नहीं।

भाषा का उपयोग ही तब है, जब हम किसी और से बोल रहे हों। भाषा संवाद है। जहां मैं और तू है, वहा भाषा की उपादेयता है। जहां दो हैं, वहां भाषा है। और जहां एक ही बचा, वहां कैसी भाषा! वहां तो मौन रह जाता है।

इसलिए मैं कहता हूं. परमात्मा की तो एक ही भाषा है मौन। वहां बोलकर चूक जाओगे। न बोले तो पा जाओगे। वहां एक शब्द भी उठ गया, तो जमीन और आसमान का फासला हो जाएगा। वहा बोलना ही मत।

पश्चिम के बहुत बड़े विचारक, यहूदी दार्शनिक, मार्टिन बूबर ने अपनी प्रसिद्धतम पुस्तक में लिखा है पुस्तक का नाम है ’मैं और तू -आइ एण्ड दाऊ।’ इस सदी में लिखी गयी महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण किताबों में एक है। लेकिन बूबर एक दार्शनिक हैं ऋषि नहीं, विचारक हैं मनीषी नहीं। सोचा है, समझा है जाना नहीं, पहचाना नहीं, अनुभव नहीं, स्वाद नहीं, पीया नहीं। प्यास वैसी की वैसी है। शब्दों से प्यास बुझ भी नहीं सकती है।

अनहद में बिसराम 

ओशो 

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