Monday, February 15, 2016

वो कागज़ की कश्ती.....

तुमने देखा, जवान आदमी कहता है, बचपन में बड़ी खुशी थी! या कहता है, जवानी में बड़ी खुशी थी। मरता हुआ आदमी कहता है, जीवन में बड़ी खुशी थी। ऐसा लगता है कि जहां तुम होते हो वहां तो खुशी नहीं होती, जहां से तुम निकल गये वहां खुशी होती है। बच्चों से पूछो! बच्चे खुश इत्यादि जरा भी नहीं। यह को की बकवास है! ये बुढ़ापे में लिखी गयी कविताएं हैं कि बचपन में बड़ी खुशी थी। बच्चों से तो पूछो। बच्चे बड़े दुखी हो रहे हैं। क्योंकि बच्चों को सिवाय अपनी असहाय अवस्था के और कुछ समझ में नहीं आता। और हरेक डाट रहा है, डपट रहा है। इधर बाप है, इधर मां है; इधर बड़ा भाई है, उधर स्कूल में शिक्षक है, और सब तरह के डांटने डपटने वाले और बच्चे को लगता है, किसी तरह बड़ा हो जाऊं बस, तो इन सबको मजा चखा दूं!


एक छोटा बच्चा स्कूल में, शिक्षक उसे कह रहा था. शिक्षक ने उसे मारा। वह बच्चा रो रहा था। तो शिक्षक ने कहा. ‘रोओ मत, समझो। मैं तुम्हें प्रेम करता हूं इसीलिए तुम्हें मारता हूं ताकि तुम सुधसे, तुम्हारे जीवन में कुछ हो जाये, कुछ आ जाये।’ बच्चे ने कहा: ‘प्रेम तो मैं भी आपको करता हूं, लेकिन प्रमाण नहीं दे सकता!’

प्रमाण बाद में देना पड़ता है। बच्चा कैसे प्रमाण दे अभी!


छोटे बच्चे को पूछो, छोटा बच्चा खुश नहीं है। हर बच्चा जल्दी से बड़ा हो जाना चाहता है। इसीलिए तो कभी बाप के पास भी कुर्सी पर खड़ा हो जाता है और कहता है, देखो मैं तुमसे बड़ा हूं! हर बच्चा चाहता है बताना कि मैं तुमसे बड़ा हूं! रस लेना चाहता है इसमें कि मैं भी बड़ा हूं मैं छोटा नहीं हूं! छोटे में निश्चित ही दुख है। कहां का सुख बता रहे हो तुम बच्चे को? हर चीज पर निर्भर रहना पड़ता है मिठाई मांगनी तो मांगनी, आइसक्रीम चाहिए तो मांगनी। और मांगे आइसक्रीम, मिलती कहां है? हजार उपदेश मिलते कि दात खराब हो जायेंगे, कि पेट खराब हो जायेगा। 

और बच्चों की कभी समझ में नहीं आता कि भगवान भी खूब है, बेस्वाद साग भाजी में सब विटामिन रख दिये और आइसक्रीम में कुछ नहीं; सिर्फ बीमारियां ही बीमारियां! जो स्वादिष्ट लगता है उसमें बीमारी है और जो स्वादिष्ट नहीं लगता पालक की भाजी उसमें सब लोहा और विटामिन और सब ताकत की चीजें भरी हैं। परमात्मा भी पागल मालूम पड़ता है। यह तो सीधीसी बात है कि विटामिन कहां होने चाहिए थे!


बच्चा कोई सुखी नहीं है। लेकिन जब तुम जवान हो जाओगे और जवानी के दुख आयेंगे, तब तुम अपने मन को समझाने लगोगे, बचपन कितना सुखपूर्ण था! यह झूठ है। यह तुम अपने को समझा रहे हो। आज तो सुख नहीं है, तो दो ही उपाय हैं अपने को समझाने के : पीछे सुख था और आगे सुख होगा। आगे का तो इतना पक्का नहीं है, क्योंकि आगे क्या होगा, क्या पता! लेकिन पीछे, पीछे का तो अब मामला खतम हो चुका, वहां से तो गुजर चुके। जिस राह से आदमी गुजर जाता है उस राह के सुखों की याद करने लगता है। वे सब कंकड़ पत्थर, कांटे, कंटकाकीर्ण यात्रा, सब भूल जाती है, धूल धवांस, धूप, वह सब भूल जाती है। जब किसी वृक्ष की छाया में बैठ जाता है तो याद करने लगता है, कैसी सुंदर यात्रा थी!


मैं एक सज्जन के साथ पहाड़ पर था। वे जब तक पहाड़ पर रहे, गिड़गिड़ाते ही रहे, शिकायत ही करते रहे कि क्या रखा है, इतनी चढ़ाई और कुछ सार नहीं दिखाई पड़ता। और थक जाते और हांफते और कहते, अब कभी दुबारा न आऊंगा। मैं उनकी सुनता रहा। फिर हम पहाड़ से नीचे उतर आये। गाड़ी में बैठ कर वापिस घर लौटते थे कि ट्रेन में एक सज्जन ने पूछा कि क्या आप लोग पहाड़ से आ रहे हैं? उन्होंने कहा, ‘अरे बड़ा आनंद आया!’ मैंने कहा, ‘सोच समझ कर कहो, फिर तो तैयारी नहीं कर रहे आने की? किससे कह रहे हो? और मेरे सामने कह रहे हो कि बड़ा आनंद आया!’


वे थोड़ा झिझके! क्योंकि ऐसा तो सभी यात्री कहते हैं लौट कर कि बड़ा आनंद आया। हजयात्री से पूछो, कहेगा, बड़ा आनंद आया! बातों में मत पड़ जाना। यह तो यात्री यह कह रहा है कि अब अपनी तो कट ही गयी, दूसरों की भी कटवा दो। अब यात्री यह कह रहा है कि कट तो गयी, अब और स्वीकार करना कि वहा दुख पाया और मूढ़ बने, अब यह और बदनामी क्यों करवानी? बड़ा आनंद आया! सभी यात्री लौट कर यही कहते हैं कि बड़ा आनंद, गजब का आनंद! कैसा सौंदर्य! स्वर्गीय सौंदर्य! ऐसी भ्रांति पलती है।


का आदमी जवानी के सौंदर्य और सुख की बातें करने लगता है। और जवान सिर्फ बेचैन है। जवान सिर्फ परेज्ञान है, ज्वरग्रस्त है, वासना से दग्ध है, अंगारे की तरह वासना हृदय को काटे जाती है, चुभती है धार की तरह। कहीं कोई सुखचैन नहीं है। हजार चिंताएं हैं व्यवसाय की, धंधे की, दौड़ धाप है। 


मरता हुआ आदमी सोचने लगता है, जीवन में कैसा सुख था!

 
मैं तुमसे इसलिए यह कह रहा हूं ताकि तुम्हें खयाल रहे। जहां सुख नहीं है वहा सुख मान मत लेना। दुख को दुख की तरह जानना। दुख को जो दुख की तरह जान लेता है, वह सुख को पाने में समर्थ हो जाता है। और जो अपने को मना लेता है, झूठी सांत्वनाओं में ढांक लेता है अपने को, ओढ़ लेता है चादरें असत्य की वह भटक जाता है।



अष्टावक्र महागीता 


ओशो

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