Friday, February 19, 2016

कहां है वह ब्रह्म?

विज्ञान कहता है, कोई भी चीज विनष्ट नहीं होती। यह बहुत मजे की बात है। विज्ञान की तीन सौ वर्षों की खोज कहती हैं कि कोई भी चीज विनष्ट नहीं होती। और कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जो विनष्ट नहीं होता, वही ब्रह्म है। क्या विज्ञान को कहीं से कोई गंध मिलनी शुरू हो गई ब्रह्म की? क्या कहीं से कोई झलक विज्ञान को पकड़ में आनी शुरू हुई उसकी, जो विनष्ट नहीं होता?


झलक नहीं मिली, लेकिन अनुमान मिला है। नाट ए ग्लिम्प्स, बट जस्ट एन इनफरेंस। एक अनुमान विज्ञान के हाथ में आ गया है। उसको एक बात खयाल में आ गई है कि सिर्फ रूप ही बदलता है।


ध्यान रहे, विज्ञान को अभी उसका कोई पता नहीं चला जो नहीं बदलता है, लेकिन एक बात पता चल गई कि सिर्फ रूप ही बदलता है। लेकिन रूप के पीछे कुछ है जरूर, जो नहीं बदलता है। उसका कोई पता नहीं है। इसलिए विज्ञान की खोज निगेटिव है, नकारात्मक है। उसे एक बात पता चल गई कि जो बदलता है, वह रूप है।


लेकिन रूप के भीतर कुछ न बदलने वाला भी सदा मौजूद है, अन्यथा रूप भी बदलेगा कैसे? किस पर बदलेगा? बदलाहट के लिए भी एक न बदलने वाला आधार चाहिए। परिवर्तन के लिए भी एक शाश्वत तत्व चाहिए। और दो परिवर्तन के बीच में जोड़ने के लिए भी कोई अपरिवर्तित कड़ी चाहिए।


क्या आपने कभी खयाल किया कि जब पानी भाप बनता है, तो जरूर बीच में एक क्षण होता होगा, एक गैप, इंटरवल, जब पानी भी नहीं होता और भाप भी नहीं होती। लेकिन अभी विज्ञान को उस गैप का, उस अंतराल का कोई पता नहीं है। विज्ञान कहता है, पानी हम जानते हैं; गर्म करते हैं; फिर एक क्षण आता है कि भाप को हम जानते हैं।


लेकिन पानी और भाप के बीच में कोई एक क्षण जरूरी है; क्योंकि जब तक पानी पानी है, तो पानी है; और जब वह भाप हो गया, तो भाप हो गया। लेकिन कोई एक क्षण चाहिए, जब पानी के भीतर की जो वस्तु है, जो कंटेंट है, जो आत्मा है, वह पानी भी न हो। क्योंकि अगर वह पानी होगी, तो भाप न हो सकेगी। और भाप भी न हो, क्योंकि अगर वह भाप हो चुकी होगी, तो पानी न होगी। एक क्षण के लिए न्यूट्रल…


जैसे कोई आदमी गाड़ी के गेयर बदलता है, तो अगर पहले गेयर से दूसरे गेयर में गाड़ी डालता है, तो चाहे कितनी ही त्वरा से डाले, कितनी ही तेजी से डाले, चाहे आटोमैटिक ही क्यों न हो गेयर, आदमी को डालना भी न पड़े, पर बीच में एक न्यूट्रल, एक तटस्थ क्षण है, जब गेयर ऐसी जगह से गुजरता है, जहां वह पहले गेयर में नहीं होता और दूसरे में पहुंचा नहीं होता। यह जरूरी क्षण है, यह कड़ी है।

लेकिन इस कड़ी का विज्ञान को अनुमान भर होता है। और वही कड़ी ब्रह्म है। लेकिन इंद्रियों के द्वारा अनुमान भी हो जाए तो बहुत है।

कृष्ण कहते हैं, वह जो नहीं नाश को उपलब्ध होता है, वही ब्रह्म है।

कहां है वह ब्रह्म? अगर आप रूप को देखते रहेंगे, तो वह ब्रह्म कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगा। लेकिन अरूप को कैसे देखें? कहां देखें?

पानी दिखता है, भाप दिखती है, बीच का वह अरूप तो दिखाई नहीं पड़ता। अगर उसे देखना हो, तो सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं में ही उस अरूप को देखना पड़ता है।

जब आपका एक विचार जाता है और दूसरा आता है, तो दोनों विचारों के बीच में भी फिर वही कड़ी होती है, जब कोई विचार नहीं होता। विचार एक रूप है, दूसरा विचार दूसरा रूप है–थाट फार्म है–विचार की अपनी आकृतियां हैं।

यह जानकर आप हैरान होंगे कि विचार भी आकृतिहीन नहीं हैं। जब आप क्रोध में होते हैं, तब आपके चित्त की आकृति भिन्न होती है। जब आप प्रेम में होते हैं, तब आपके चित्त की आकृति भिन्न होती है।

कभी आपने खयाल किया, जब आप कंजूसी से भरे होते हैं, तो सिर्फ कंजूसी नहीं होती, भीतर भी कोई चीज सिकुड़ जाती है। जब आप किसी को प्रेम से कुछ देते हैं, तो सिर्फ देना बाहर ही नहीं घटता, भीतर भी कुछ फैल जाता है। आकार है। जब हम कहते हैं कंजूस, तो उस शब्द में भी सिकुड़ने का भाव है; कोई चीज सिकुड़ गई है। जब हम कहते हैं दानी, देने वाला, प्रेमी, बांटने वाला, तो कोई चीज बंटती है और फैल जाती है।

प्रत्येक विचार का आकार है। और आपके भीतर प्रतिपल आकार बदलते रहते हैं। आपके चेहरे पर भी आकार छप जाते हैं। जो आदमी निरंतर क्रोध करता है, वह जब नहीं भी क्रोध करता है, तब भी लगता है, क्रोध में है। वह निरंतर क्रोध की जो आकृति है, उसके चेहरे पर स्थायी हो जाती है और फिर चेहरा उसको छोड़ता नहीं। क्योंकि चेहरे को पता है कि कभी भी अभी थोड़ी देर में फिर जरूरत पड़ेगी। वह पकड़े रखता है, जस्ट टु बी इफिशिएंट, कुशल होने की दृष्टि से। अब ठीक है, जब बार-बार जरूरत पड़ती है, तो उसको हटाने की आवश्यकता भी क्या है! जब तक हटाएंगे, तब तक पुनः आवश्यकता आ जाएगी। तो रहने दो। तो फिक्स्ड इमेज बैठ जाती है चेहरे पर, सभी लोगों के। और कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि पीछा ही नहीं छोड़ता।


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