Wednesday, March 9, 2016

भूल का स्वीकार

अपनी-अपनी व्याख्या है। जीवन को तुम वैसा ही करके देखते हो, जैसा तुम देखना चाहते हो। शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं; सत्यों के अर्थ बदल जाते हैं। तुम अपने आस-पास अपनी ही मान्यताओं का एक संसार खड़ा कर लेते हो, फिर तुम उसी संसार में जीते हो। और आदमी अपने ही कारण खोजता चला जाता है, और कारणों के थेगड़े लगाए चला जाता है, ताकि मान्यताएं टूट न जाएं, फूट न जाएं; जोड़त्तोड़ बिठाता रहता है।


मुल्ला नसरुद्दीन का बाजार में किसी से झगड़ा हो गया। वह आदमी बहुत नाराज था और उसने कहा, एक ऐसा झापड़ा मारूंगा–नसरुद्दीन को कहा–कि बत्तीसों दांत जमीन पर गिर जाएंगे, बत्तीसी नीचे गिर जाएगी।


मुल्ला नसरुद्दीन और जोश में आ गया, उसने कहा कि तूने समझा क्या है! अगर मैंने झापड़ा मारा तो चौंसठों दांत नीचे गिर जाएंगे।


एक तीसरा आदमी पास में खड़ा था, उसने कहा, भई बड़े मियां, इतना तो खयाल रखो कि चौंसठ दांत आदमी के होते ही नहीं।


मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, मुझे पता था कि तू भी बीच में कूद पड़ेगा, इसलिए चौंसठ। एक ही झापड़े में दोनों के गिरा दूंगा।

आदमी अपनी…तुमसे भूल भी हो जाए, तो भी तुम भूल स्वीकार नहीं करते। तुम अपनी भूल के लिए भी कारण खोज लेते हो, तर्क खोज लेते हो।


भूल को स्वीकार करना बड़ा साहस है। और जिसने भूल को स्वीकार कर लिया, धीरे-धीरे भूलें तिरोहित हो जाती हैं।




भज गोविन्दम मूढ़मते 

ओशो 

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