Sunday, March 13, 2016

सुख-दुख

...... के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि वे विपरीत नहीं हैं; वे एक-दूसरे में रूपातरित होते रहते हैं, लहर की भांति हैं–कभी इस किनारे, कभी उस किनारे। हम सब जानते हैं; हमने अपने सुखों को दुखों में परिवर्तित होते देखा है। लेकिन देख कर भी हमने निष्कर्ष नहीं लिए। शायद निष्कर्ष लेने के लिए हम अपने मन को अवसर नही देते हैं। एक सुख दुख बन जाता है, तब हम तत्काल दूसरे सुख की तालाश में चल पड़ते हैं। रुकते नहीं, ठहर कर देखते नहीं कि जिसे कल सुख जाना था, वह आज दुख हो गया, तो ऐसा तो नहीं है कि हम जिसे भी सुख जानेंगे, वह फिर दुख हो जाएगा? ऐसा मन कहता है कि यह हो गया दुख, कोई बात नहीं, कहीं कोई भूल हो गई, यह दुख रहा ही होगा, हमने भ्रांति से सुख समझ लिया था।


इसलिए और एक मजे की बात है कि जिस चीज को आप जितना बड़ा सुख मानते हैं, वह उतना बड़ा दुख बदलेगा, जब बदलेगा। जिस चीज को आप ज्यादा सुख नहीं मानते वह बदल कर ज्यादा दुख नहीं हो सकता। अनुपात वही होगा। इसलिए उदाहरण के लिए कहता हूं : अगर किसी का विवाह उसके माता-पिता ने कर दिया है, तो उसमें बहुत सुख की अपेक्षा ही नहीं होती, इसलिए दुख भी बहुत फलित नहीं होता।


प्रेम-विवाह जितना दुख लाता है, उतना दुख आयोजित विवाह नहीं ला सकता; क्योंकि आयोजित विवाह में कभी बहुत सुख की आशा ही नहीं थी। तो टूटेगा क्या? बिगड़ेगा क्या? बिखरेगा क्या? जितनी बड़ी अपेक्षा, उतना बड़ा दुख फलित हो सकता है। इसलिए पश्चिम ने सोचा था इधर पचास-सौ वर्षों में कि प्रेम-विवाह बहुत सुख ले आएगा। उन्होंने ठीक सोचा था। लेकिन उन्हें दूसरी बात का पता नहीं था कि प्रेम- विवाह बहुत दुख भी ले आएगा। और अनुपात सदा बराबर होगा। जितना बड़ा सुख अपेक्षा में होगा, जब रूपांतरण होगा, उतना ही बड़ा दुख होगा।


सर्वसार उपनिषद 

ओशो 

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