Sunday, March 13, 2016

मैं कौन हूं

तुम ईश्वर को खोजने चल पड़े, तुमने अभी यह भी नहीं पूछा कि यह खोजने वाला कौन है! तुम दूर की यात्रा पर निकल पड़े, तुमने पास की तलाश नहीं की। और जिसने स्वयं को नहीं जाना वह कभी परमात्मा को नहीं जान पाएगा, क्योंकि परमात्मा स्वयं का ही विराट रूप है। जो अपने आंगन में छोटे से आकाश से भी परिचित न हो सका, वह विराट आकाश से परिचित हो सकेगा। जो अपने छोटे से पिंजड़े में भी पर नहीं फड़फड़ाता है, वह आकाश में कैसे उड़ेगा। इसलिए पहली उड़ान तो अपने पिंजड़े में ही पर फड़फड़ाने से करनी होती है।

मैं कौन हूं, यह प्रश्‍न पर का फड़फड़ाना है। यह उठता क्यों है। और जो ईमानदार है, मैंने कहा, उसे उठेगा ही। यह उठता इसलिए है कि यहां जो भी आदमी थोड़ा सोच  विचार करेगा, उसे एक बात समझ में आती है कि मैं यहां विदेशी हूं। यहां कुछ भी ऐसा नहीं लगता जिससे तृप्ति मिलती हो। ऐसा लगता है कि मैं किन्हीं और जल स्रोतों का पीने का आदी रहा हूं, यहां का कोई जल तृप्त करता नहीं मालूम होता। ऐसा लगता है मैंने कुछ प्रेम के और रूप जाने हैं, यहां का कोई प्रेम संतुष्टि देता नहीं मालूम पड़ता। ऐसा लगता है मैंने कुछ और फूल देखे हैं, यहां के सब फूल फीके मालूम पड़ते, रंगहीन मालूम पड़ते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि मैने कुछ शाश्वत का कभी अनुभव किया है। यहां हर चीज क्षणभंगुर मालूम होती है, पानी का बबूला मालूम होती है। चाहे याद न रह गई हो मुझे, चाहे उस लोक को खोए बहुत दिन हो गए हों। होमा पक्षी गिरते गिरते आकाश से बहुत नीचे आ गया हो, जमीन पर आ गया हो……।


का सोवै दिन रैन 

ओशो 

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