Wednesday, March 9, 2016

क्या स्व को विसर्जित कर देने पर समूचा अस्तित्व रक्षा करने लगता है?

तुम्हारी रक्षा नहीं करेगा। और रक्षा पाने के लिए ही अगर तुमने स्व को विसर्जित करने की कोशिश की, तो वह विसर्जन भी सच्चा नहीं होगा–हो नहीं पाएगा। विसर्जन का अर्थ ही यह होता है कि अब रक्षा करने को हमारे पास कोई भी न बचा जिसकी रक्षा की जानी चाहिए। अगर तुमने सोचा कि मेरी रक्षा करे परमात्मा, इसलिए मैं समर्पण करता हूं, तो तुम समर्पण नहीं कर रहे, सिर्फ परमात्मा को सेवा में नियुक्त कर रहे हो।


समर्पण का तो अर्थ ही यह होता है कि अब मैं नहीं हूं, तू है। अब मेरी रक्षा का क्या सवाल है! अब तो मैं एक कोरा आकाश हूं, एक सूना गृह हूं। अब तो मिटने को कुछ बचा ही नहीं, मिटेगा कैसे? मैं पहले ही मिट गया हूं। समर्पण का अर्थ होता है: मैं मिटा, अब तुझे मिटाने की जरूरत न पड़ेगी; वह कष्ट मैं तुझे न दूंगा, वह मैं अपने ही हाथ से कर लेता हूं।


समर्पण वास्तविक अर्थों में आत्महत्या है–वास्तविक अर्थों में। जिसको तुम आत्महत्या कहते हो वह आत्महत्या नहीं है, वह तो केवल शरीरघात है। आत्मा थोड़े ही मरती है, शरीर भर गिर जाता है, नया शरीर मिल जाता है। लेकिन समर्पण वस्तुतः आत्मघात है। तुम अपने स्व को ही मिटा देते हो। तुम उससे कहते हो, अब मैं हूं ही नहीं, तू ही है। अब तुम्हारी रक्षा का क्या सवाल है? अब तुम हो कौन? तुम किसकी रक्षा चाहते हो?
और जब तुम बचे ही नहीं, तभी सारा अस्तित्व तुम्हारी रक्षा करता है। अब मिटाने का मजा भी कहां! अब मिटाने में सार भी क्या! जब तुम खुद ही मिट गए, तो मौत व्यर्थ हो गई।


लेकिन तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं। तुम ठीक काम भी करते हो तो गलत कारणों के लिए करते हो; तुम्हारे कारण ठीक नहीं होते। तुम अगर मंदिर भी जाते हो तो गलत कारण से जाते हो। कोई जा रहा है नौकरी मांगने, कोई जा रहा है धन मांगने, कोई जा रहा है पत्नी मांगने, कोई जा रहा है बेटा मांगने। तुम कभी सोचते ही नहीं कि तुम बाजार के बाहर जा ही कहां रहे हो! यह कोई मंदिर में जाने का ढंग हुआ? यह तो बाजार पूरा तुम्हारे साथ मंदिर में जा रहा है। अगर तुम ऐसे हो तो मंदिर तुम्हें पवित्र न कर पाएगा, तुम मंदिर को अपवित्र करके लौट आओगे।


मंदिर कोई स्थान थोड़े ही है, भाव-दशा है। जब तक मांग है, तब तक कैसा मंदिर! जब तक क्षुद्र वस्तुएं जो बाजार में बिक रही हैं, उन्हीं को मांगने तुम परमात्मा के पास जाते हो, तो तुम शायद समझते हो कि परमात्मा कोई सुपर मार्केट है; छोटी-मोटी दुकानों में चीजें नहीं मिलीं, चलो मंदिर में मिल जाएंगी! संसार में नहीं मिलीं तो मोक्ष में मिल जाएंगी! लेकिन तुम मांगते क्या हो?


मंदिर वही पहुंचता है, जिसने समझ लिया कि मांगना व्यर्थ है; जिसने समझ लिया कि मांगने से मिलता ही नहीं कुछ सिवाय दुख के; जिसने समझ लिया कि कितनी ही चेष्टा करो, भिखमंगे का पात्र खाली ही रह जाता है, भरता नहीं।


मंदिर वही पहुंचता है जो धन्यवाद देने जाता है, मांगने नहीं। जिस दिन तुम्हारे भीतर से अहर्निश धन्यवाद उठने लगे–फूल खिलें और तुम्हारे भीतर से धन्यवाद उठे, आकाश से बादल बरसें और तुम्हारे भीतर धन्यवाद उठे, एक बच्चा किलकारी मारे और तुम्हारे भीतर धन्यवाद उठे, तुम श्वास लो और तुम्हारा होना ही इतना शांति का हो कि धन्यवाद उठे।


अहर्निश उठता हुआ धन्यवाद ही भज गोविन्दम् है।



भज गोविन्दम मूढ़मते 


ओशो 


 

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