Tuesday, March 8, 2016

निःशंका

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के द्वार पर एक भिखारी आया। तो मुल्ला ने उसे देखते ही से कहा कि मालूम होता है गांव में नये-नये आये हो।


उस भिखारी ने कहा, आप कैसे पहचान गए? बिलकुल ठीक कहते हैं। मैं अभी स्टेशन से ही उतरकर चला आ रहा हूं। मगर आप पहचाने कैसे? आप कोई ज्योतिषी हो?


उसने कहा कि मैं कोई ज्योतिषी नहीं, लेकिन गांव के भिखारी जानते हैं कि यहां कुछ मिलेगा नहीं।


भिखारी को भी देने योग्य हमारे पास क्या है! हमारे पास है ही कहां कुछ! लेकिन हम मानकर बैठे हैं, मान्यता है, और मान्यता में हम काफी रस लेते हैं। मान्यता के ढक्कन को उघाड़कर भी भीतर के खाली बर्तन को नहीं देखते। डर लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि खाली ही हो! मुट्ठी हम बांधकर रखते हैं, खोलते नहीं, क्योंकि कहीं दिखाई न पड़ जाये कि खाली है। हम अपने को समझाये रखते हैं कि है, बहुत है। हम गुनगुनाते रहते हैं कि बहुत है। और फिर आशंका पैदा होती है कि कहीं छिन न जाये।


महावीर जब तुमसे कहते हैं, आशंका नहीं चाहिये, निःशंका की स्थिति चाहिये, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम निःशंका को आरोपित करो। वे इतना ही कह रहे हैं कि तुम अपनी आशंका को जरा गौर से खोलकर, आंखों के सामने बिछाकर तो देख लो: वहां कोई कारण है? कोई भी कारण नहीं है! जिस दिन तुम्हें ऐसी दृष्टि उपलब्ध होगी कि डरने का कोई भी कारण नहीं है, खोने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि है ही नहीं, उसी क्षण तुम्हारे जीवन में एक नई ऊर्जा का आविर्भाव होगा। उस नई ऊर्जा को कहो: श्रद्धा, भरोसा, ट्रस्ट। उस नई ऊर्जा को कहो: निःशंका। तब तुम असंदिग्ध भाव से बिना पीछे लौटकर देखे, सत्य की खोज में निकल जाओगे। वह भाव तुम्हें, यह अनुभव कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, ना-कुछ ही दांव पर लगाना है, मिला तो ठीक न मिला तो कुछ खोता नहीं–तो फिर दांव पर लगाने में तुम झिझकोगे नहीं। तुम सभी दांव पर लगा दोगे।


जिन सूत्र 


ओशो 

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