Thursday, April 14, 2016

नया शरीर मिलने भर से अतीत के संस्कारों व मन वाला सूक्ष्म शरीर भी बदल जाता है क्या?

ह अपने-आप नहीं बदल जाता, लेकिन कृष्ण जैसे आदमी के हाथ से मरने का मौका मिले तो उसमें बहुत फर्क पड़ता है। सभी को नहीं मिलता, बहुत पुण्य कर्मों के फल से मिलता है।

साधारणतः नहीं बदल जाता। अगर एक आदमी मरता है, तो शरीर ही बदलता है, उसके भीतर का और कुछ भी नहीं बदलता। लेकिन कृष्ण जैसे आदमी के हाथ से मरना बड़ी भारी घटना है, क्योंकि “एजेंट’ मौजूद है। उस आदमी की मौजूदगी में यह घटना घट रही है तुम्हारे मरने की, और तुम्हारे शरीर के छूटते ही उस आदमी के व्यक्तित्व से जो सूक्ष्मतम किरणों का जाल फैलता है, वह तुममें “एब्जार्व’ हो जाएगा, उसे तुम पकड़ पाओगे, वह तुम पी जाओगे। जो तुम्हारा शरीर बाधा दे रहा था कृष्ण से मिलने से, वह बीच से हट जाएगा तो कृष्ण से मिलना आसान हो जाएगा। उस मिलने में बहुत कुछ होगा। वह मिलन अर्जुन के लिए ऐसे ही हो पाता है क्योंकि अर्जुन इस शरीर के बाहर छलांग लगा पाता है। हम प्रेम में शरीर के बाहर छलांग लगा लेते हैं। शत्रुता में हम शरीर के बाहर नहीं छलांग लगाते, शरीर के भीतर शरीर को दुर्ग की तरह बनाकर बैठ जाते हैं।

प्रेम और घृणा का वही फर्क है। अगर मेरा आपसे प्रेम है, आपका मुझसे प्रेम है, तो प्रेम की घड़ी में हम एक-दूसरे के शरीर के बाहर छलांग लगा जाते हैं, और वहां मिल जाते हैं जहां शरीर नहीं मिलते। लेकिन अगर मेरी आपसे घृणा है, तो हम दोनों अपने-अपने शरीरों को दुर्ग बनाकर, किले बनाकर भीतर बैठ जाते हैं। शरीर के बाहर बिलकुल नहीं निकलते। आपका शरीर मुझे दिखाई पड़ता है, आपको मेरा शरीर दिखाई पड़ता है, हमारा मिलन ज्यादा-से-ज्यादा शरीर के तल पर हो सकता है, और कहीं नहीं हो सकता। लेकिन प्रेम में शरीर के बाहर छलांग लगा जाते हैं।

अर्जुन को मारने की जरूरत नहीं पड़ती बदलने के लिए, क्योंकि वह प्रेम से भरा है। किसी को मारने की जरूरत पड़ती है बदलने के लिए, क्योंकि वह घृणा से भरा है, उसके दुर्ग को ढहा देना होगा। तब वह शरीर के बाहर आ जाएगा। और घड़ी वही पैदा हो जाएगी जो अर्जुन के साथ बिना मारे होती है। वह किसी दुष्ट के साथ मारकर पैदा होती है। लेकिन कृष्ण की अनुकंपा दोनों पर बराबर है। उसमें कोई फर्क नहीं है। लेकिन मैंने कहा कि यह समझ के थोड़ा बाहर हो जाएगा। इसलिए इसे समझने की कोशिश मत करना, सुनना, और भूल जाना।

कृष्ण स्मृति 

ओशो 


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