Friday, May 27, 2016

कबीर कहते हैं: लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात।

यह कुछ लिखने में आती नहीं। लिखी कभी गई नहीं। लिखी जा सकती तो बड़ी आसान हो जाती बात। फिर विज्ञान और धर्म में कुछ भेद न रह जाता। विज्ञान लिखा जा सकता है, धर्म लिखा नहीं जा सकता। देखादेखी बात! दूसरे की मान कर चलने से भी नहीं होगा। मैं कहूं कि ईश्वर है, इससे क्या होगा? तुम्हारे लिए होना चाहिए, तुम्हारा अनुभव होना चाहिए, तभी कुछ होगा। देखादेखी बात!

ग्रंथ तो बहुत हैं आदमी के पास, अंबार लगे हैं। तरहत्तरह के ग्रंथ हैं। तुम्हें जैसे ग्रंथ चाहिए वैसे ग्रंथ उपलब्ध हैं। इतने ग्रंथ हैं कि अगर हम पृथ्वी पर फैलाएं, तो किसी ने हिसाब लगाया है कि अगर सारी किताबें एक कतार बना कर पृथ्वी पर लगाई जाएं तो सात चक्कर पृथ्वी के हो जाएंगे। इतनी किताबें हैं आदमी के पास! करोड़ों करोड़ों किताबें! और इन किताबों में कीड़ों की तरह लोग खोज रहे हैं। शायद दीमक को तो कुछ भोजन मिल भी जाता होगा, पंडित को उतना भी नहीं मिलता। और तुम्हें जैसी जरूरत है, किताबें रचने वाले लोग मौजूद हैं, तुम्हारी आकांक्षा के अनुकूल रच देते हैं, तुम्हें जो प्रीतिकर लगे। बाजार का तो नियम ही यही है: जिस बात की मांग हो उसकी पूर्ति।

काहे होत अधीर 

ओशो 

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