Friday, June 3, 2016

भावदशा

कल मैंने अखबार में एक खबर पढ़ी, मैं हैरान हुआ। अखबार में मैंने खबर पढ़ी, एक व्यक्ति ने पत्र लिखा है संपादक के नाम कि वह जहांगीर अस्पताल में भर्ती होने गया था। बड़े दिनों से बीमारियों से पीड़ित था। मैं मेरे पिता बीमार थे उनको देखने गया था। उनको देख कर मैं बाहर निकलता था…मुझे तो पता ही नहीं वह आदमी कहां खड़ा था। उसने लिखा है कि मैं वहीं खड़ा था और उसने हाथ जोड़ कर नमस्कार किए और मैंने उसे आशीर्वाद दिया और तत्क्षण उसकी सारी बीमारियां दूर हो गईं! भर्ती होने गया था जहांगीर अस्पताल में, कैंसिल करवा दिया, घर लौट आया। सारी बीमारियां समाप्त हो गईं।

अब यह अंधेरे में लग गया तीर है। मुझे पता ही नहीं उनका। अब वह मुझे फंसा रहा है। अब ऐसे दूसरे उपद्रवी भी यहां आने लगेंगे। लक्ष्मी बहुत डरी थी। उसने कहा कि यह अखबार में खबर छपी है, अब दफ्तर में दिक्कत होगी। लोग आएंगे कि हमें आशीर्वाद चाहिए। बीमारों की कतार लग सकती है।

और मुझे तो यहां तक भी शक है कि वह मुझे मिला। जहां तक तो संभव है स्वभाव, क्योंकि वे ही वहां मेरे पिता की देख रेख में थे। क्योंकि मैंने न तो किसी को आशीर्वाद दिया, मुझे याद ही नहीं पड़ता। और मेरी याददाश्त इतनी कमजोर नहीं है। जहां तक तो उसने स्वभाव के चरण छुए होंगे, स्वभाव ने आशीर्वाद दे दिया। मन ने मान लिया। मन मान ले तो क्रांतियां घट सकती हैं। क्योंकि सौ में से नब्बे प्रतिशत बीमारियां तो मानसिक होती हैं। अगर मन मान ले तो नब्बे प्रतिशत बीमारियां तो तत्क्षण तिरोहित हो सकती हैं। मानने की बात है।

तो तुम्हारी प्रार्थनाएं अगर कभी पूरी भी हो जाती हों तो तुम यही समझना कि लग गया तीर अंधेरे में। कोई परमात्मा तुम्हारी प्रार्थनाएं नहीं सुन रहा है, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना अगर प्रगाढ़ता से की जाए तो तुम्हारे मन को प्रभावित करती है। और तुम्हारा मन प्रभावित हो तो रूपांतरण होते हैं।

लेकिन परमात्मा को बीच में लेने की कोई जरूरत नहीं है। तब तुम प्रार्थना को ज्यादा परिपूर्णता से कर सकोगे। कोई सुनने वाला नहीं है, यह जान कर तुम्हारी प्रार्थना ज्यादा से ज्यादा ध्यानमय होने लगेगी। तुम्हारी प्रार्थना धीरे धीरे किसी की स्तुति न रह जाएगी, बल्कि एक भावदशा बनेगी। और तुम तब चौबीस घंटे प्रार्थनापूर्ण रह सकते हो। न घंटी बजानी पड़ेगी, न धूप दीप जलानी पड़ेगी एक प्रार्थना का भाव, अस्तित्व के प्रति एक कृतज्ञता का भाव, कि इसने इतना दिया है मुझ अपात्र को! अमृत बरसाया है मुझ पर! मेरी कोई योग्यता न थी, मैंने कुछ अर्जित न किया था!

काहे होत अधीर 

ओशो

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