Tuesday, June 14, 2016

कुतूहल और जिज्ञासा

अगर तुम्हारे भीतर जागरण हो गया है चैतन्य का, तो उस जागरण में तुम प्रत्यक्ष देख लोगे, किससे कहना, किससे नहीं कहना। कुतूहल वाले व्यक्ति को मत कहना, जिज्ञासु को कहना। जिज्ञासा और कुतूहल में बड़ा बारीक फासला है। वे एक जैसे दिखाई पड़ते हैं। कुतूहल जिज्ञासा का झूठा सिक्का है। एक जैसे दिखाई पड़ते हैं।


जैसे छोटा बच्चा पूछता है, चले जा रहे हो रास्ते पर, तुम्हारा बच्चा साथ है, वह पूछता है, पक्षियों को दो पंख क्यों हैं? वृक्ष में लाल फूल क्यों लगे हैं? सूरज सुबह ही क्यों उगता है? उगना तो रात में चाहिए, जब अंधेरा रहता है! परमात्मा नासमझ है; सुबह उगाता है, जब कि प्रकाश है, और रात में डुबा देता है जब कि अंधेरा है। वह पूछता जाता है।


तुम उसकी बात पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देते। तुम कुछ कुछ कहकर उसे टालते रहते हो, और तुम न भी टालो, तो वह खुद ही एक क्षण बाद भूल जाता है कि उसने क्या पूछा था, क्योंकि दूसरे प्रश्न खड़े हो जाते हैं।


वह कुछ पूछने के लिए नहीं पूछ रहा है। उसकी कोई जिज्ञासा नहीं है; कुतूहल है। उसके मन में तरंगें उठ रही हैं। हर चीज प्रश्नवाची है। लेकिन तुम यह मत सोचना कि वह कोई किसी प्रश्न से अटका है; कि इस प्रश्न का हल न हुआ, तो उसका जीवन दांव पर लग जाएगा। उसे कुछ मतलब ही नहीं है। तुम इतना ही कह दो, बड़े होकर जान लोगे, बात खतम हो गई। वह यह भी नहीं पूछता कि तुम बड़े हो गए हो, तुमने जाना? वह कहता है, ठीक होगा। तुम कुछ भी उत्तर दे दो, उत्तर में उसे बहुत रस भी नहीं है; उसे पूछने का मजा है।


जैसे पंडित को बोलने का मजा है, वैसे कुतूहली को पूछने का मजा है। इसलिए पंडित और कुतूहली का मेल बैठ जाता है। पंडितों के पास कुतूहल? लोग इकट्ठे हो जाते हैं।


जिज्ञासु को पूछने के लिए नहीं पूछना है; पूछने पर प्राण अटके हैं; पूछने पर निर्भर है सब कुछ; पूछने पर दाव लगा है, या इस पार या उस पार; वह जीवन मरण का सवाल है; वह हर कुछ नहीं पूछ रहा है। इसलिए जिज्ञासु कभी कभी पूछेगा; लेकिन अपने प्राण उस एक प्रश्न में डुबा देगा। कुतूहली रोज पूछेगा, दिन में हजार बातें पूछेगा, और भूल जाएगा पूछकर, फिर दुबारा याद भी नहीं करेगा।


परमात्मा कुतूहल से नहीं जाना जाता। कुतूहल बहुत सस्ता है, जिसमें तुम दांव ही नहीं लगाते। बस, पूछ लिया, राह चलते पूछ हया!


मेरे पास ऐसे लोग आ जाते थे। मैं यात्राओं में था। मैं ट्रेन पकड़ने के लिए प्लेटफार्म पर चला जा रहा हूं; कोई आदमी देख लेगा, पहचान जाएगा, पास आ जाएगा; कि आपसे जरा एक बात पूछनी है, मन शात कैसे हो?
मैं ट्रेन पकड़ रहा हूं ट्रेन छूटने को है, उसको खुद भी ट्रेन पकड़नी है! स्टेशन पर पूछ रहा है, मन शांत कैसे हो? जैसे कोई बच्चों का खेल है! कि कोई पूछता है कि ईश्वर है या नहीं? आप संक्षिप्त में उत्तर दे दें, ही या ना?
मेरे ही और न से क्या हल होगा? अगर मेरे ही और न से तुम्हारी ईश्वर की खोज पूरी हो जाती, तो वह कोई खोज थी? वह दो कौड़ी की थी। खोज ही न थी।


जिज्ञासा बात और है। तुम जिज्ञासा को हल करने के लिए चुकाने को तैयार होते हो, चाहे पूरा जीवन भी चुकाना पड़े। प्रश्न केवल प्रश्न नहीं हैं, प्रश्न तुम्हारे भीतर की अंतर्व्यथा हैं। जीवन में उलझाव है, तुम समाधान चाहते हो, उत्तर नहीं।


कुतूहली उत्तर चाहता है; जिज्ञासु समाधान चाहता है। इसलिए कुतूहली पांडित्य तक पहुंच जाएगा कभी, जिज्ञासु समाधि तक जाएगा।


लेकिन जिसके भीतर चैतन्य का आविर्भाव हुआ है, वह देख लेगा, कहां कुतूहल है, कहां जिज्ञासा है। उसे पहचानने में जरा भी भूल नहीं होती। ऐसे ही जैसे तुम मुरदे को पहचान लेते हो और जिंदा आदमी को पहचान लेते हो। भला तुम बहुत बड़े चिकित्साशास्त्र के ज्ञाता न होओ, क्या तुम्हें अड़चन लगती है जानने में कि यह आदमी मुरदा है और यह आदमी जिंदा है? लाश को पहचानने में किसे देर लगती है!


जिज्ञासा तो जीवंत है। कुतूहल मुरदा है, लाश है। और लाश के साथ सिर मत फोडना।


गीता दर्शन 

ओशो 


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