Monday, June 13, 2016

भगवान! मैं निपट अज्ञानी! जब भी आंख बंद की, महा-अंधकार ही दिखता है। क्या कभी प्रकाश की किरण भी पा सकूंगा? कृपया समझाएं।

सिमत नवलानी! अंधे व्यक्ति को अंधकार भी दिखाई नहीं पड़ता–नहीं दिखाई पड़ सकता है। अंधकार को देखने के लिए भी आंख चाहिए। आंख तो चाहिए ही चाहिए, कुछ भी देखना हो, भले वह अंधकार ही क्यों न हो।

साधारणतः लोग सोचते हैं कि अंधा आदमी अंधकार में जीता होगा। उनकी धारणा मूलतः गलत है। अंधे आदमी को अंधकार का क्या पता! अंधकार का तुम्हें पता है, क्योंकि तुम्हारे पास आंख है। जब तुम आंख बंद करते हो तो अंधकार दिखाई पड़ता है। लेकिन अंधे को नहीं दिखाई पड़ता।


अंधकार दिखाई पड़ता हो तो एक बात सुनिश्चित हो गई कि तुम्हारे पास आंख है। और यह बड़ा सौभाग्य है! अंधेरा दिखाई पड़ रहा है तो प्रकाश भी दिखाई पड़ेगा, क्योंकि प्रकाश अंधकार का ही दूसरा पहलू है। जैसे जीवन मृत्यु का दूसरा पहलू है, ऐसे ही अंधकार और प्रकाश एक ही सिक्के से जुड़े हैं–इस तरफ अंधकार, उस तरफ प्रकाश। प्रकाश और अंधकार में कोई मौलिक भेद नहीं है; भेद है सापेक्ष। कम प्रकाश की अवस्था को हम अंधकार कहते हैं; कम अंधकार की अवस्था को हम प्रकाश कहते हैं। मात्रा का भेद है, गुण का भेद नहीं है।


इसीलिए तो जिनकी आंखें तेज हैं…जैसे उल्लुओं को रात में भी दिखाई पड़ता है। उल्लू की आंख रात के अंधकार में भी प्रकाश ही पाती है। और आंखें कमजोर हों तो दिन की रोशनी में भी रोशनी कहां! तो दिन की रोशनी में भी अंधकार ही है।


सबसे पहला तथ्य समझ लेने जैसा है, वह यह है कि बजाय अंधकार की चिंता लेने के इस बात का सौभाग्य मानो कि तुम्हारे पास आंख है, कम से कम दिखाई तो पड़ता है!


लेकिन मनुष्य की यही बुनियादी भूल है–वह कांटे गिनता है, फूल नहीं। वह सौभाग्य नहीं तौलता, दुर्भाग्यों का अंबार लगाता है। जीवन में इतना परमात्मा ने दिया है, उसकी हम कभी कोई गणना नहीं करते। अभाव हमें घेरे रहता है। हम अभाव को ही देखने के आदी हो गए हैं।


नवलानी, पहली तो बुनियादी भूल यह छोड़ो। पहले तो प्रसन्न होओ कि मुझे दिखाई पड़ता है, अंधकार ही सही; कम से कम मेरे पास आंख है; मैं अंधा नहीं हूं। और जैसे ही यह क्रांति तुम्हारे भीतर घटेगी–अंधकार से नजर आंख पर लौट आएगी–वैसे ही प्रकाश की शुरुआत हो जाती है। प्रकाश आरंभ हुआ, सूर्योदय हुआ। जैसे ही तुमने अपनी दृष्टि गलत से सही की तरफ मोड़ी, नकार से विधायक की तरफ आए, वैसे ही सुबह होने लगी, सुबह फिर दूर नहीं है। और यह भी स्मरण रखो कि जब रात्रि का अंधकार बहुत गहन होता तो सुबह बहुत करीब होती है। सुबह होने के पहले अंधेरा बहुत घना हो जाता है। जाने के पहले अंधेरा अपने को इकट्ठा करता है, तो घना हो जाता है। विदा होने के पहले अपना साज-सामान बांधता है, बोरिया-बिस्तर बांधता है, तो घना हो जाता है।


तो दूसरी बात तुमसे कहना चाहता हूं: सौभाग्यशाली हो कि घना अंधकार मालूम हो रहा है। घने अंधकार के गर्भ में ही सुबह छिपी है, भोर छिपा है।


तुम कहते हो: “मैं निपट अज्ञानी!’


अच्छा लक्षण है। पांडित्य खतरनाक लक्षण है। मैं जानता हूं, ऐसा जानना, इस जगत में सबसे बड़ी बाधा है परमात्मा को जानने में। मैं नहीं जानता हूं, यह तो द्वार है। जिसने जाना कि मैं अज्ञानी हूं, उसने ज्ञान की दिशा में पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम उठा लिया। यह एक कदम इतना महत्वपूर्ण है, जितनी कि फिर पूरी यात्रा भी महत्वपूर्ण नहीं। इस एक कदम में करीब-करीब यात्रा पूरी हो जाती है।


दो कदम ही हैं परमात्मा और तुम्हारे बीच: पहला कदम कि मैं अज्ञानी हूं और दूसरा कदम कि मैं हूं ही नहीं। बस ये दो ही कदम हैं, और मंदिर आ गया। तीसरा तो कोई कदम ही नहीं है।


फिर दोहरा दूं: पहला कदम कि मैं अज्ञानी हूं। इस बात की स्वीकृति में ही अहंकार के प्राण तो निकलने लगे। क्योंकि अहंकार दावेदार है। अहंकार कहता है: मैं और अज्ञानी? होगी सारी दुनिया अज्ञानी, मैं ज्ञानी हूं! मैं और निर्बल? मैं बलवान हूं। मैं ऐसा! मैं वैसा! मैं के आभूषण हम बढ़ाते चले जाते हैं–इतना धन, इतना पद, इतना त्याग, इतना ज्ञान–सब मेरा! जितना तुम मेरे को फैलाते हो उतना ही तुम्हारा मैं सघन हो जाता है। और जितना मैं सघन है उतनी ही परमात्मा से दूरी बढ़ जाती है। मैं की सघनता अर्थात परमात्मा से दूरी। मैं पिघलने लगे, मैं गलने लगे–परमात्मा के पास आने लगे। मैं विसर्जित होने लगा, और दूरी कम होने लगी। जिस क्षण मैं नहीं बचा, उस क्षण परमात्मा ही है, और कोई भी नहीं।


काहे होत अधीर 

ओशो 

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