Friday, June 10, 2016

नेति नेति की कला

मुझे काम है
सरल भाषा बोलना

सरल भाषा बोलना
बहुत कठिन काम है

जैसे कोई पूछे
ठीक ठीक बोलो
तुम्हारा क्या नाम है

और वह बिना डरे बोल जाए
तो इनाम है।

कोई पूछे तुमसे एकदम से, पकड़ ले गर्दन कि ठीक ठीक बोलो, तुम्हारा क्या नाम है? तुम कहे जा रहे हो कि मेरा यह नाम, मेरा वह नाम। और वह कहे, ठीक ठीक बोलो, तुम्हारा क्या नाम है?

और वह बिना डरे बोल जाए

तो इनाम है।

डर तो जाएगा, क्षण भर को झिझक तो जाएगा, क्योंकि नाम तो कोई भी तुम्हारा नहीं है। और पहचान तो तुम्हें है ही नहीं अपनी; दूसरों ने जो जता दिया, जो लेबल लगा दिया, वही पहचान लिया कि हिंदू हूं, कि ब्राह्मण हूं, कि मुसलमान हूं; कि यह मेरा नाम, कि अब्दुल्ला, कि राम, कि इमरसन; कि यह मेरी जाति, यह मेरा गोत्र, यह मेरा परिवार, यह मेरा देश। सब सिखावन बाहर से आई हुई है। अपना साक्षात्कार कब करोगे?

टालो मत! यही क्षण हो सकता है, अभी हो सकता है। नेति नेति की कला सीखो। न मैं मन हूं नेति; न मैं तन हूं नेति। न यह, न वह। फिर मैं कौन हूं? फिर एक गहन बवंडर की तरह प्रश्न उठेगा मैं कौन हूं? सारे तादात्म्यों को तोड़ते जाना। जो जो उत्तर मन दे, इनकार करते जाना कि यह मैं नहीं हूं। और तब अंततः बच रह जाता है साक्षी भाव एक दर्पण की तरह निर्मल, साक्षी जिसमें सब झलकता है। लेकिन जो भी उसमें झलकता है, दर्पण वही नहीं है। दर्पण तो झलकाने वाला है। दर्पण झलक नहीं है; झलकाता सब है और झलक के साथ उसका कोई तादात्म्य नहीं है। ऐसा तुम्हारा साक्षी भाव है।


और साक्षी ही तुम्हारे भीतर पंछी है। उसे पहचान लिया तो फिर देह में रहो, संसार में रहो, तो भी तुम संसार के बाहर हो। फिर देह में रह कर भी देह के बाहर हो। तब तुम्हारे जीवन में एक प्रकाश होगा और तुम्हारे जीवन में एक उल्लास होगा, क्योंकि तुम्हें अमृत का अनुभव होगा। फिर भय कहां! फिर दुख कहां! फिर पीड़ा कहां, संताप कहां!


जिसने स्वयं को जाना उसने सब जाना। जो स्वयं से चूका वह सबसे चूका। और जिसने स्वयं को जाना उसने परमात्मा को जाना। क्योंकि स्वयं की ही गहराइयों में उतरते उतरते तुम परमात्मा का अनुभव कर लोगे। और एक बार अपने भीतर परमात्मा दिख जाए तो फिर सब तरफ उसी का विस्तार है। फिर तिल भर जगह नहीं है जो उससे खाली है।

कहे होत अधीर 

ओशो 

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