Monday, July 18, 2016

ग्यारहवीं दिशा

ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन हज यात्रा के लिए गया, मक्का गया। साथ में दो मित्र और थे; एक था नाई और एक था गांव का महामूर्ख। वह महामूर्ख गंजा था। एक रात वे भटक गए रेगिस्तान में; गांव तक न पहुंच पाए। रात रेगिस्तान में गुजारनी पड़ी। तो तीनों ने तय किया कि एक एक पहर जागेंगे, क्योंकि खतरा था। अनजान जगह थी। चारों तरफ सुनसान रेगिस्तान था। पता नहीं डाकू हों, लुटेरे हों, जानवर हों।

पहली ही घड़ी, रात का पहला हिस्सा, नाई के जुम्मे पड़ां। दिनभर की थकान थी: उसे नींद भी सताने लगी, डर भी लगने लगा। रात का गहन अंधकार! चारों तरफ रेगिस्तान की सांय सांय! से कुछ सूझा न कि कैसे अपने को जगाए रखे। तो उसने सिर्फ अपने को काम में लगाए रखने के लिए मुल्ला नसरुद्दीन की खोपड़ी के बाल साफ कर दिए सिर्फ काम में लगाए रखने को! और वह कुछ जानता भी नहीं था; नाई था। नंबर दो पर मुल्ला नसरुद्दीन की बारी थी। तो जब उसका समय पूरा हो जगया तो नसरुद्दीन को उठाया कि बड़े मियां। तो नसरुद्दीन ने जागने के लिए अपने सिर पर हाथ फेरा, पाया कि सिर सपाट है। उसने कहा, जरूर कोई भूल हो गई है। तुमने मेरी जगह उस गंजे मूर्ख को उठा लिया है।

हमारी पहचान बाहर से है। हम जानते हैं अपने संबंध में वही जो दूसरे कहते हैं। भीतर से अपने को हमने कभी जाना नहीं। हमारी सब पहचान झूठी है। जिस दिन हम अपने को अपने ही तईं जानेंगे, उसी दिन सच्ची पहचान होगी। उसे ही आत्मज्ञान कहा है।


फिर चूंकि इंद्रियां बाहर हैं, इसलिए हम सोच लेते हैं कि सभी कुछ बाहर है। तो हम प्रेम को भी बाहर खोजते हैं और प्रेम का झरना भीतर बह रहा है; हम धन को भी बाहर खोजते हैं और भीतर परम धन अहर्निश बरस रहा है; हम आनंद को भी बाहर खोजते हैं और भीतर एक क्षण को भी आनंद से हमारा संबंध नहीं टूटा है। प्यासे हम तड़पते हैं; रेगिस्तानों में भटकते हैं; द्वार द्वार भीख मांगते हैं और भीतर अमृत का झरना बहा जा रहा है। भीतर हम सम्राट हैं। इंद्रियों के साथ ज्यादा जुड़ जाने के कारण और तादात्म्य बाहर बन जाने के कारण, हम भिखारी हो गए हैं। यही नहीं कि हम धन बाहर खोजते हैं, यश बाहर खोजते हैं, स्वयं को बाहर खोजते हैं; हम परमात्मा तक को बाहर खोजने लगते हैं जो कि हद हो गई अज्ञान की। तो हम मंदिर बनाते हैं, मस्जिद बनाते हैं, गुरुद्वारा बनाते हैं, परमात्मा की प्रतिमा बनाते हैं हम बाहर से इस भांति आंक्रांत हो गए हैं कि हमें याद ही नहीं आती कि भीतर का भी एक आयाम है।


अगर किसी से पूछो, कितनी दिशाएं हैं, तो वह कहता है, दस। आठ चारों तरफ, एक ऊपर, एक नीचे; ग्यारहवीं दिशा की कोई बात ही नहीं करता भीतर। और वही हमारा स्वभाव है, क्योंकि हम भीतर से ही बाहर की तरफ आए हैं। हमारा घर तो भीतर है। गंगोत्री तो भीतर है जहां से बही है जीवन की धारा।

सुनो भई साधो 

ओशो 


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