Thursday, July 7, 2016

रोटी का मारा यह देश

रोटी का मारा
यह देश
अभी कमल को
सही पहचानता है। 


माना भूखा है, माना दीन-हीन है; मगर कुछ आंखें अभी भी आकाश की तरफ उठती हैं। कीचड़ बहुत है मगर कमल की पहचान बिलकुल खो गई हो ऐसा भी नहीं है। लाख में किसी एकाध को अभी भी कमल पहचान में आ जाता है, प्रत्यभिज्ञा हो जाती है। नहीं तो तुम यहां कैसे होते? जितनी गालियां मुझे पड़ रही हैं, जितना विरोध, जितनी अफवाहें उन सब के बावजूद भी तुम यहां हो। जरूर तुम कमल को कुछ पहचानते हो। लाख दुनिया कुछ कहे, सब लोक-लाज छोड़कर भी तुम मेरे साथ होने को तैयार हो। आशा की किरण है।


रोटी का मारा
यह देश
अभी कमल को
सही पहचानता है।
तल के पंक तक फैली
जल की गहराई से
उपजे सौंदर्य को
भूख के आगे झुके बिना
–धुर अपना मानता है।
रूखी रोटी पर तह-वत्तह
ताजा मक्खन लगाकर
कच्ची बुद्धिवाले कुछ लोगों के
हाथ में थमाकर
कृष्ण-कृष्ण कहते हुए
जो उनका कमल
छीन लेना चाहते हैं
उनकी नियत को
भली भांति जानता है।
भोले का भक्त है
फक्कड़ है
पक्का पियक्कड़ है
बांध कर अंगौछा
यहीं गंगा से घाट पर
दोनों जून छानता है;
किंतु मौका पड़ने पर
हर हर महादेव कहते हुए
प्रलयंकर त्रिशूल भी तानता है।
रोटी का मारा
यह देश
अभी कमल को
ठीक ठीक पहचानता है। 


पहचान बिलकुल मर नहीं गई है। खो गई है, बहुत खो गई है।  कभी-कभी कोई आदमी मिलता है–कोई आदमी, जिससे बात करो, जो समझ। मगर अभी आदमी मिल जाते हैं भीड़ अंधी हो गई है, मगर सभी अंधे नहीं हो गई हैं। लाख दो लाख में एकाध आंख वाला भी है, कान वाला भी है, हृदय वाला भी है। उसी से आशा है। अभी भी कुछ लोग तैयार हैं कि परमात्मा की मधुशाला कहीं हो तो द्वार पर दस्तक दें कि खोलो द्वार। अभी कुछ लोग तैयार हैं कि कहीं बुद्धत्व की संभावना हो तो हम उस से जुड़ जाए, चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। अभी भी कुछ लोग तैयार हैं कि कहीं पियक्कड़ों की जमात बैठे तो हम भी पीए, हम भी डूबें; चाहे दांव कुछ भी लगाना पड़े, चाहे दांव जीवन ही क्यों न लग जाए। इसलिए आशा की किरण है रामानंद! आशा की किरण नहीं खो गई है। निराश होने को कोई कारण नहीं है।


सच तो यह है, जितनी रात अंधेरी हो जाती है उतनी ही सुबह करीब होती है। रात बहुत अंधेरी हो रही है, इसलिए समझो कि सुबह बहुत करीब होगी। लोग बहुत क्षुद्र बातों के अंधेरे में खो रहे हैं, इसलिए समझो कि अगर सत्य प्रकट हुआ, प्रकट किया गया तो पहचानने वाले भी जुड़ जाएंगे, सत्य के दीवाने भी इकट्ठे हो जाएंगे।



और सत्य संक्रामक होता है। एक को लग जाए, एक को छू जाए, तो फैलता चला जाता है। एक जले दीए से अनंत-अनंत दीए जल सकते हैं। आशा है, बहुत आशा है। निराश होने का कोई कारण नहीं है। उसी आशा के भरोसे तो मैं काम में लगा हूं। जानता हूं कि भीड़ नहीं पहचान पाएगी, लेकिन यह भी जानता हूं कि उस भीड़ में कुछ अभिजात हृदय भी हैं, उस भीड़ में कुछ प्यासे भी हैं–जो तड़प रहे हैं और जिन्हें कहीं जल-स्रोत नहीं पड़ता; जहां जाते हैं पाखंड है, जहां जाते हैं व्यर्थ की बकवास है, जहां जाते हैं शास्त्रों का तोता-रटंत व्यवहार है, पुनरुक्ति है। वैसे कुछ लोग हैं। थोड़े से वैसे ही लोग इकट्ठे होने लगें कि संघ निर्मित हो जाए। संघ निर्मित होना शुरू हो गया है। यह मशाल जलेगी। यह मशाल इस अंधेरे को तोड़ सकती है। सब तुम पर निर्भर है!

 अमी झरत बिसगत कँवल 

ओशो 

No comments:

Post a Comment