Thursday, July 14, 2016

प्रेम अथवा ध्यान

महान जादूगर हुडनी के जीवन का एक बहुत सुंदर प्रसंग है। उसका पूरा जीवन अत्यधिक सफलता से बीता; और वह चमत्कारों का सफल व्यापारी था। उसने बहुत से ऐसे चमत्कार किए कि यदि वह मनुष्यता को ठगने वाला व्यक्ति होता, तो वह बहुत आसानी से ठग सकता था। लेकिन वह एक बहुत ईमानदार व्यक्ति था। वह कहा करता था—’‘जो कुछ मैं कर रहा हूं वह और कुछ नहीं बल्कि एक कुशलता है; और उसमें चमत्कार जैसा और कुछ भी नहीं।’’ किसी भी जादूगर ने कभी इतना नहीं किया जितना अधिक चमत्कार हुडनी ने दिखलाया। उसकी शक्ति पर विश्वास करना लगभग असम्भव था। उसे संसार के लगभग सभी अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है?


कैदखानों में बडी सुरक्षा में रखा गया, और कुछ ही पलों में वह उनसे बाहर निकल आता था। उसे जंजीरों, हथकड़ियों, बेड़ियों में ताले लगाकर रखा जाता और कुछ ही क्षणों में वह बाहर आ जाता। न जंजीरें काम करतीं और न ताले। कुछ ऐसा घटता कि वह तुरंत मुक्त हो जाता। उसे मुक्त होने में मिनिट भी नहीं, बस केवल कुछ सेकिंड ही लगते।


लेकिन अपने पूरे जीवन में केवल एक बार वह इटली में असफल हुआ। वह रोम के केंद्रीय कारागार में बंदी बनाकर रखा गया और हजारों लोग उसके बाहर आने को देखने के लिए इकट्ठे हो गए। कई मिनट गुजर गए लेकिन उसके बाहर आने का कोई चिह्न न दिखाई दिया। लगभग आधा घंटा गुजर गया और लोगों में बैचेनी बढ़नी शुरू हो गई, क्योंकि ऐसा आज तक कभी भी नहीं हुआ था।


”आखिर हुआ क्या? क्या वह पागल हो गया, क्या वह मर गया अथवा हुआ क्या? अथवा क्या वह महान जादूगार असफल हो गया?


आखिर एक घंटे बाद वह पसीने से तरबतर हंसता हुआ बाहर आया। लोगों ने उससे पूछा ’‘ आखिर आपको हुआ क्या? एक घंटा? हम लोग तो सोच रहे थे कि कहीं आप पागल तो नहीं हो गये अथवा कहीं मर तो नहीं गए?” यहां तक कि अधिकारी भी यह सोच रहे थे कि चलकर उसे देखा जाये कि उसके साथ हुआ क्या?
 
उसने उत्तर दिया ’‘उन लोगों ने मेरे साथ चालाकी की। दरवाजे में ताला लगा ही नहीं था। मेरी सारी कुशलता ताले को खोलने की है और मैं यह खोजने की कोशिश कर रहा था कि ताला है कहां, पर वहां कोई ताला पड़ा ही न था। दरवाजे पर ताला लगाया ही नहीं गया था, वह पहले ही से खुला हुआ था। थक कर, चिंतित, परेशान और उलझन में डूबा जब मैं गिर पड़ा और दरवाजे से ठोकर लगी तो दरवाजा खुल गया। इस तरह मैं बाहर आया; लेकिन इसमें मेरी कुशलता काम न आई।’’

ठीक यही मामला मेरे साथ भी है।


यही प्रश्न बोधिधर्म से भी पूछा गया था; उसके पास बहुत सी कुंजियां थीं। कोई भी कुंजी किसी ताले में लगती न थी, और वह अधिक से अधिक कुंजियां इकट्ठा ही किये चले जाता था। प्रश्नकर्त्ता बहुत हिसाब किताब का चतुर व्यक्ति है। अब जब वे कुंजियां नहीं लग रही हैं, वह मुझसे आशीर्वाद मांग रहा है। मेरे आशीर्वाद तो तुम सभी के लिए हैं ही, तुम चाहे उन्हें मांगो अथवा नहीं, लेकिन यह कुंजियां किसी काम की नहीं हैं। इन सभी कुंजियों को फेंक दो। दरवाजा तो खुला ही हुआ है। कोई भी तुम्हारा रास्ता नहीं रोक रहा। लेकिन यदि तुम बुद्धत्व खोज रहे हो, तो उसका मार्ग ध्यान है। यदि तुम्हें शाश्वत लीला की खोज है तो बुद्धत्व की भाषा में सोचने की कोई जरूरत ही नहीं है।


यह दोनों निर्दिष्ट करने वाले मार्ग भिन्न हैं, पूरी तरह एक दूसरे से जुदा। लेकिन अंतिम परिणाम एक ही जैसा है। भक्त या प्रेमी, परमात्मा की सुंदर लीला का भाग बनकर ही उस बोध को प्राप्त करता है, और ध्यानी इस लीला को बहुत सुंदर पाता है जब उसे बुद्धत्व घटता है। लेकिन दोनों भिन्‍न दिशाओं से भिन्न विधियों और भिन्न व्यवहार के द्वारा वहां पहुंचते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को बहुत स्पष्ट रूप से यह निर्णय लेना होता है, अन्यथा तुम उलझन में पड़ जाओगे। प्रेम अथवा ध्यान बहुत स्पष्टता से चुन लेना है और तब उस पथ पर निष्ठा से थिर हो जाना है। अंतिम रूप से जो दूसरे पथ पर चलने से घटित होता है, वह तुम्हें भी घटता है, इसलिए परेशान होने की जरा भी जरूरत नहीं। लेकिन यह सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने पर ही घटता है। सभी पथ, पर्वत के शिखर पर पहुंच कर मिल जाते हैं, लेकिन सभी मार्गों पर अलग अलग तरह से चलना होता है।

आनंद योग 

ओशो 


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