Thursday, July 14, 2016

मैं ईश्वर में भरोसा नहीं करता हूं। क्या आप ईश्वर के होने का कोई प्रमाण दे सकते हैं?

विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा: ईश्वर है? मैं प्रमाण चाहता हूं। 

रामकृष्ण ने कहा: तू देखना चाहता है?

विवेकानंद ने बहुत लोगों से पूछी थी यह बात, लेकिन किसी ने यह नहीं कहा था कि तू देखना चाहता है? जिसके पास गए थे, उसने कुछ तर्क बताया था। और विवेकानंद बुद्धिशाली व्यक्ति थे; उन्होंने उसका तर्क खंडन किया था। लेकिन रामकृष्ण ने कोई तर्क ही न दिया तो खंडन का तो उपाय ही न छोड़ा। उलटा दूसरा प्रश्न पूछा, प्रश्न के उत्तर में प्रश्न पूछा कि तू ईश्वर को जानना चाहता है, यह बोल? अभी जानना है? इसी वक्त?

तो विवेकानंद थोड़े घबड़ाए कि यह मामला क्या है जानने का, कि कोई पास की कोठरी में बंद है। विवेकानंद पहली बार डरे किसी आदमी से। कहा: मैं सोच कर आऊंगा।
 
रामकृष्ण ने कहा: यह भी काई प्रश्न है? सोच कर आओगे! पहले ही सोच लेना था। ईश्वर के संबंध में प्रश्न उठाते हो तो पहले ही सोच लेना था।


मैं तुम्हें कोई तर्क नहीं दूंगा। मैं भी तुमसे कहता हूं: जानना है? अभी जानना है? तैयार हो जाओ। हिम्मत करनी होगी। यह बड़ी बेबूझ यात्रा है। ये कच्ची हिम्मत के लोग इसमें न जा सकेंगे। यह बड़ा दुर्धर्ष मार्ग है। क्यों? क्योंकि अपने को बिना मिटाए कोई परमात्मा को नहीं जान सकता, इसलिए।


तुम कहते हो: परमात्मा को जानना है।

मैं तुमसे कहता हूं: मिटना होगा, तो ही जान सकोगे।

रोशनी को जानना है? अंधेरा जाएगा, तो जान सकोगे।

परमात्मा को जानना है? अहंकार को जाना होगा, तो ही जान सकोगे। तुम चाहो कि अहंकार के रहते जान लूं, तो न जान सकोगे।
 
यह तो ऐसे ही हुआ कि आदमी कहे कि मैं आंख तो बंद रखूंगा और रोशनी जानना चाहता हूं; आंख मैं नहीं खोलूंगा, आंख तो बंद ही रखूंगा और रोशनी जानना चाहता हूं। और अगर हम उससे कहें कि आंख खोल कर ही जान सकते हो, वह कहे, मैं आंख भी क्यों खोलूं, मुझे रोशनी पर भरोसा भी नहीं है, पहले भरोसा आए, तब मैं आंख खोलूं–तो क्या करोगे इस आदमी के साथ? और ये आंखें तो बाहर की हैं, जबरदस्ती भी खोली जा सकती हैं। भीतर की आंखें जबरदस्ती नहीं खोली जा सकतीं। 

 पद घुंघरू बाँध 

ओशो 

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