Thursday, July 14, 2016

सदबुद्धि

बुद्ध ने घर छोड़ा, वह सदबुद्धि के अवतरण की घटना थी महल छोड़ा, राज्य छोड़ा। जो सारथी उन्हें छोड़ने गया था राज्य की सीमा के पार, वह तो साधारण नौकर था, उससे भी न रहा गया। उसने कहा कि सुनो, यह छोटे मुंह बड़ी बात है, लेकिन कहे बिना नहीं रह सकता। तुम जो कर रहे हो, यह बिलकुल बुद्धूपन है; नासमझी है। पागल हुए हो? सारी दुनिया राजमहल चाहती है, साम्राज्य चाहती है। सौभाग्य से तुम्हें मिला है, और अभागे तुम कि तुम छोड़ कर जा रहे हो! तुम्हारी जैसी सुंदर पत्नी कहां पाओगे? यह धन, सुख-सुविधा, यह राजमहल, यह परिवार, यह सम्मान कहां पाओगे? लौट चलो!


बूढ़ा सारथी, वह भी बुद्ध से ज्यादा समझदार है; वह भी सलाह दे रहा है!


बुद्ध ने कहा, तुम्हारी बात मैं समझता हूं। लेकिन तुम जहां महल देखते हो, वहां मैं सिवाय आग लगी लपटों के और कुछ भी नहीं देखता; और जहां तुम सौंदर्य देखते हो, वहां मैं मौत को छिपा देख लिया हूं; और जहां तुम धन देखते हो, वहां सिर्फ धन का धोखा है। मैं असली धन की खोज में जाता हूं। सुनो, मैं असली घर की खोज में जाता हूं। क्योंकि यह घर तो छीन लिया जाएगा। मैं उस घर की तलाश में हूं जो छीना न जा सके। और जब तक वह न मिल जाए, तलाश नहीं रुकेगी। उसके लिए मैं सब गंवाने को तैयार हूं। क्योंकि यह तो छिन ही जाएगा; इसको दांव पर लगाने में हर्ज क्या है? दिन, समय की बात है; आज है, कल छिन जाएगा। जो कल छिन ही जाएगा, अगर उसको दांव पर लगाने से कुछ ऐसा मिलता हो जो कभी न छिने, तो यह सौदा मंहगा नहीं है।


बुद्ध को सदबुद्धि पैदा हुई है; सारथी बुद्धिमान है।


बुद्ध लौटे घर बारह वर्ष बाद सदबुद्धि का दीया पूरा जल चुका है; वे रौशन हो गए हैं; लेकिन बाप नाराज है। बाप ने कहा, नासमझी छोड़ो, घर वापस लौट आओ! तुमने मुझसे धोखा किया है; तुमने अपनी पत्नी से धोखा किया है; तुमने अपने नवजात बेटे से धोखा किया है; लेकिन फिर भी मैं तुम्हें माफ कर दूंगा, क्योंकि पिता का हृदय। मैं तुम्हें माफ कर दूंगा; तुम वापस लौट आओ! यह शोभा नहीं देता–यह भीख मांगना सड़कों पर। किसके तुम बेटे हो? और तुम्हें भीख मांगने की जरूरत क्या है? तुम्हें अगर इसी तरह का शौक हो, तो हजारों लोगों को तुम रोज भीख बांट सकते हो, मांगने की क्या जरूरत है?


बुद्ध अभी भी, बुद्ध के पिता को बुद्धू ही मालूम पड़ रहे हैं।


सांसारिक बुद्धि को धार्मिक सदबुद्धि नासमझी मालूम पड़ती है। लोग समझते हैं कि यह तो पागलपन है, यह क्या कर रहे हो! लेकिन जिसको सदबुद्धि जगती है, उसे लगता है कि बुद्धि बिलकुल नासमझी है। और तुम्हें निर्णय करना होगा; क्योंकि इस निर्णय के बिना कोई आदमी धर्म के जगत में प्रवेश नहीं कर सकता। जब तक तुम्हें सांसारिक बुद्धि मूढ़ता न मालूम पड़ने लगे, तब तक सदबुद्धि की किरण तुम्हें मिल न सकेगी। सांसारिक बुद्धि जब तुम्हें मूढ़ता मालूम होने लगे, सांसारिक चालाकी जब तुम्हें अपने को ही धोखा देना मालूम होने लगे; और सांसारिक यश, पद, प्रतिष्ठा जब तुम्हें असफलता दिखाई पड़ने लगें, तब तुम्हारे भीतर सदबुद्धि का अंकुरण होगा।

 भज गोविंदम मूढ़मते 

ओशो 

No comments:

Post a Comment