Thursday, August 4, 2016

आदमी दूसरे से सोचता है

मुल्ला नसरुद्दीन के घर में आग लग गयी। सारा पडोस जल गया। मैंने उससे पूछा कि नसरुद्दीन बड़ा बुरा हुआ। उसने कहा, कुछ खास बुरा नहीं हुआ। मैंने कहा, मामला क्या है? उसने कहा, अपना क्या जला, पड़ोसियों का देखो! अपने पास था ही क्या? झोपड़ा था, जल गया। पड़ोसियों के महल जल गये! आज ही तो मजा आया कि अपने पास झोपड़ा था, अच्छा हुआ। सदा तो यह पीड़ा रहती थी कि इनके पास महल है और अपने पास झोपड़ा है, आज सुख मिला कि अपने पास झोपड़ा और इनके पास महल! जला तब पता चला, कि बडा मजा आया! प्रभु की बड़ी कृपा है।
 
आदमी दूसरे से सोचता है। तुम्हें पता चल जाए कि किसी को नहीं हो रहा है, तुम निश्चित हो गये। रोज तुम अखबार पढ लेते हो, देखते हो कितनी जगह डाके पड़े, कितने लोग मारे गये, कितना युद्ध हुआ, कितनी चोरियां हुईं, कितने लोग बेईमानी कर रहे हैं, कितने लोग पत्नियों को ले भागे किसी की, तुम कहते हो—हम ही भले। करते हैं थोड़ा —बहुत, मगर इतना थोड़े ही! चित्त में बड़ी शांति मिलती है, सांत्वना होती है। 

 तुम कह तो यह रहे हो कि पता चल जाए कि दूसरों को हुआ तो आस्था आए, भरोसा आए। नहीं, तुम यह जानना चाहते हो कि किसी को न हुआ हो, कहीं भूल—चूक से किसी को हो न गया हो। किसी को भी नहीं हुआ है तो निश्चित होकर फिर चादर ओढ़ कर सो जाएं कि कोई हम ही नहीं भटक रहे हैं, सारी दुनिया भटक रही है। कुछ अड़चन नहीं है।
 
तुम अगर मुझसे पूछते हो तो मैं कहता हूं कि सबको हो गया है—सबको था ही—और सबसे मेरा मतलब यह नहीं है कि जो यहां हैं —कहीं भी जो हैं। परमात्मा सबको मिली हुई संपदा है। तुम पहचानो या न पहचानो, तुम उपयोग करो न उपयोग करो, तुम पर निर्भर है। तुम्हारे भीतर हीरा पड़ा है, टटोलो, न टटोलो—बहुत जन्मों तक न टटोला तो शायद भूल भी जाओ—मगर इससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता।
 
अष्टावक्र महागीता 
 
ओशो 

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