Thursday, October 13, 2016

मन संसार है



भर्तृहरि ने अपने जीवन में उल्लेख किया है। राज्य छोड़ दिया। और राज्य ऐसे ही नहीं छोड़ दिया था, बड़ी परिपक्वता से छोड़ा था, जानकर छोड़ा था। भोगा था जीवन को और जीवन के भोग से जो पीड़ा पाई थी और जीवन के भोग में जो व्यर्थता पाई थी, उसके कारण छोड़ा था। लेकिन तब भी छोड़ते छोड़ते भी धुएं की एक रेखा भीतर रह गई होगी।


जीवन जटिल है। पर्त—दर—पर्त अज्ञान है। एक पर्त पर छोड़ देते ही, दूसरी पर्त पर प्रगट होना शुरू हो जाता है।


सब छोड़कर संन्यस्त होकर जंगल में भर्तहरि बैठे हैं, अपनी गुफा में बैठे हैं। एक पक्षी ने गीत गुनगुनाया, आंख खुल गई। पक्षी को तो देखा ही देखा, राह पड़ा एक चमकदार हीरा दिखाई पड़ा। अनजाने कोने से, अचेतन की किसी पर्त से, जरा—सा लोभ सरक गया, जरा सा हल्का झोंका, पता भी न चले भर्तहरि को ही पता चल सकता है जो कि जीवन को बड़ा समझकर बाहर आया था जरा सा कंपन हो गया। लौ हिल गई भीतर उठा लूं! फिर थोड़ी हंसी भी आई। इससे भी बड़े बड़े हीरे जवाहरात छोड़कर आया, और अभी भी उठाने का मन बना है। बहुत कुछ था, बड़ा साम्राज्य था। यह हीरा कुछ भी नहीं है। ऐसे बहुत हीरों के ढेर थे। वह सब छोड़ आया, और आज अचानक इस साधारण से हीरे को राह पर पड़ा देखकर मन में यह बात उठ आई।


खूंटियां छोड़ने से लोभ नहीं छूटता। महल छोड़ देने से भी लोभ नहीं छूटता। धन के अंबार त्याग देने से भी त्याग नहीं हो जाता।


मगर भर्तहरि बड़ा सचेत, जागरूक व्यक्तित्व है। पहचान लिया, पकड़ लिया, होश में आ गया कि नहीं, यह बात क्या हुई! और जब यह मन में मंथन चलता था, यह जब मन का विश्लेषण चलता था कि लोभ कहां से उठ आया, क्षणभर पहले नहीं था; आंख बंद थी, ध्यान में लीन था कहां से, किस पर्त से? बाहर से तो नहीं आया? कोई हीरा तो नहीं भेज रहा है यह लोभ? इस विश्लेषण में लगे थे, तभी देखा कि दो घुड़सवार दोनों तरफ से राह पर आ गए हैं और दोनों की नजर एक साथ ही हीरे पर पड़ गई। दोनों की तलवारें बाहर निकल आईं। दोनों सैनिक हैं। दोनों ने अपनी तलवारें हीरे के पास टेक दीं और कहा कि पहले नजर मेरी पड़ी, तो दूसरे ने कहा, तुम गलती में हो, पता भी नहीं कि एक तीसरा व्यक्ति भी छिपा गुहा में बैठा है, जो देख रहा है। तलवारें चल गईं। क्षणभर पहले दोनों जीवित थे, क्षणभर बाद दोनों की लाशें पड़ी थीं।

 हीरा अब भी अपनी जगह था न रोया, न पछताया, न चिंतित, न बेचैन। जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। हीरे को क्या हुआ? लेकिन भर्तहरि को बड़ा बोध जागा हीरा अपनी जगह ही पड़ा रहेगा; हम आएंगे और चले जाएंगे; हम चलेंगे संसार में और विदा हो जाएंगे। हीरे हमारे लिए पछताएंगे न। न विदा देते समय एक आंसू उनकी आंखों में झलकेगा, न हमें देखकर वे प्रसन्न हैं। सब अपने ही मन का खेल है। हम ही टांग लेते हैं।


देखकर यह घटना भर्तहरि ने फिर आंख बंद कर ली। और इस घटना ने भर्तहरि को बड़ा बोध दिया।


सब पड़ा रह जाएगा। न तुम लेकर आते हो, न तुम लेकर जाते हो; लेकिन घड़ीभर को बड़े सपने संजो लेते हो, बड़े इंद्रधनुष फैला लेते हो।

मन संसार है। काम कामिनी का निर्माता है, स्रष्टा है। लोभ स्वर्ण का जन्मदाता है।

सुनो भई साधो

ओशो

No comments:

Post a Comment