Monday, November 14, 2016

दो दिन की जिंदगी में न इतना मचल के चल , दुनिया है चलचलाव का रस्ता संभल के चल



सम्राट बहादुरशाह जफर के शब्द हैं: सम्राट के हैंइसलिए सोचने जैसे भी बहुतऐसे तो कभी ऐसी बातें भिखारी भी कह देते हैंलेकिन संभावना है कि भिखारी के मन में अपने को सांत्वना देने की आकांक्षा  हो। जब ऐसी बात कोई सम्राट कहता है तो सांत्वना का सवाल नहीं हैकिसी सत्य का साक्षात हुआ हो तभी ऐसा वक्तव्य संभव है।
    
जिनके पास हैउन्हें ही पता चलता है कि संपदा व्यर्थ है। जिनके पास शक्ति हैउन्हें पता चलता है कि शक्ति सार्थक नहीं। जिनके पास नहीं हैवे तो वासना के महल बनाते ही रहते हैं। जिनके पास नहीं हैवे तो कल्पना के जाल बुनते ही कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जिनके पास नहीं हैं वे भी ऐसी बातें करने लगते हैंजो ज्ञान की मालूम पड़ती हैंलेकिन सौ में निन्यानबे मौकों पर वे बातें धोखे से भरी हैं। अपने को समझाने के लिए भिखमंगा भी महल की तरफ देखकर कह सकता हैकुछ सार नहीं वहां—समझाने कोकि अगर सार होता तो मैं महल को पा ही लेता न! सार नहीं हैइसलिए छोड़ा हुआ है।


जिसे हम पा नहीं पातेउसे मत समझना कि हमने छोड़ा है। जिसे हम पाकर छोड़ते हैंउसे ही समझना कि छोड़ा है!


जीवन में जीवन के जो परम गुह्य सत्य हैंवे केवल उन्हें ही पता चलते हैंजिन्होंने यह दौड़ पूरी कर लीजो पकेजिन्होंने जिंदगी में जल्दबाजी न कीअधैर्य न बरताजो समय के पहले भाग न खड़े हुए। पलायन से कोई कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचा है। और न पराजय से कभी त्याग फलित हुआ है।


इसलिए उपनिषद कहते हैं : तेन त्यक्तेन भुजीथा:। जिन्होंने भोगाउन्होंने ही त्याग किया है। जिसने भोगा ही नहींवह त्याग न कर सकेगा। उसके त्याग में भोग की वासना दबी ही रहेगीछिपी ही रहेगीबनी ही रहेगी। वह त्याग भी करेगा तो भोग के लिए ही करेगाइसी आशा में करेगा कि किसी परलोक में भोग मिलने को है।


जिसका त्याग भोग से आयाउसके मन से परलोक की भाषा ही समाप्त हो जाती है। क्योंकि जहा वासना नहीं हैवहां परलोक कैसाजहां वासना नहीं हैवहां स्वर्ग कैसाजहां वासना नहीं हैवहां अप्सराएं कैसीजहा वासना नहीं हैवहां कल्पवृक्ष नहीं लगते। कल्पवृक्ष वासनाओं का ही विस्तार है—और ध्यान रखनापराजित वासनाओं काहारे हुए मन काथके हुए मन का। जो इस जिंदगी में जीत न पायावह परलोक की जिंदगी में जीतने के सपने देखता है।


कार्ल मार्क्स के वक्तव्य में सचाई है कि धर्म अफीम का नशा है। सौ में निन्यानबे प्रतिशत लोगों के संबंध में मार्क्स का वक्तव्य बिलकुल सही हैधर्म अफीम का नशा है। वक्तव्य गलत हैक्योंकि वह जो एक प्रतिशत बच रहाउसके संबंध में वक्तव्य सही नहीं है। किसी बुद्ध के संबंध मेंकिसी महावीर के संबंध मेंकिसी कृष्ण के संबंध में वक्तव्य सही नहीं हैलेकिन निन्यानबे प्रतिशत लोगों के संबंध में सही है।


आदमी दुख में रहा हैइसलिए स्वर्ग की कल्पनाएं पैदा करता है। उन कल्पनाओं की अफीम घेर लेती है मन को। यहां के दुख सहने योग्य हो जाते हैं वहां के सुख की आशा में। आज की तकलीफ को आदमी झेल लेता है कल के भरोसे में। रात का अंधेरापन भी अंधेरा नहीं मालूम पड़तासुबह कल होगी। आदमी चाह के सहारे चलता जाता है।


ध्यान रखनाधर्म तुम्हारे लिए अफीम न बन जाए। धर्म अफीम बन सकता है खतरा है। धर्म जागरण भी बन सकता है और गहन मूर्च्छा भी। सब कुछ तुम पर निर्भर है। होशियारजहर को भी पीता है और औषधि हो जाती है। नासमझअमृत भी पीए तो भी मृत्यु घट सकती है। सारी बात तुम पर निर्भर है। अंततः तुम्हीं निर्णायक हो।


एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

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