Monday, April 24, 2017

मेरे प्रिय आत्मन,





अभी-अभी आपकी तरफ आने को घर से निकला। सूर्य का किरण-जाल चारों ओर फैल गया है और वृक्ष पक्षियों के गीतों से गूंज रहे हैं। मैं सुबह के इस संगीत में तल्लीन था कि अनायास ही मार्ग के किनारे खड़े सूर्यमुखी के फूलों पर दृष्टि गयी। सूर्य की ओर मुंह किये हुए, वे बड़े गवान्नत खड़े थे। उनकी शान देखने ही जैसी थी! उनके आनंद को मैंने अनुभव किया और उनकी अभीप्सा को भी पहचाना। मैं उनके साथ एक हो गया और पाया कि वे तो पृथ्वी के आकाश को पाने के स्वप्न में हैं। अंधकार को छोड़कर वे आलोक की यात्रा पर निकले हैं। मैं उनके साहस का गुणगान करता-करता ही यहां उपस्थित हुआ हूं और उनकी सफलता के लिए हजार-हजार प्रार्थनायें मेरे हृदय में घनीभूत हो गयी हैं।

और अब मैं सोच रहा हूं कि क्या मनुष्य भी ऐसे ही सूर्य को नहीं पाना चाहता है? क्या उसके प्राण भी आलोक के मूल-स्रोत से एक होने को नहीं छटपटाते हैं? क्या वह भी एक बीज नहीं, जो पृथ्वी के अंधकार भरे गर्भ को छोड़ विराट आकाश को पाने के लिए लालायित है?

बीज वृक्ष होना चाहता है। अणु विराट होना चाहता है। विकास ही जीवन है।

और जब बीज वृक्ष नहीं हो पाता है, तो स्वाभाविक ही है कि उसके प्राणों में रुदन हो और उसकी आत्मा आकाश न पाने की पीड़ा अनुभव करे। क्या मनुष्य का दुख भी ऐसा ही दुख नहीं है?

मनुष्य का मूल संताप यही है कि वह सूर्य की ओर अपना मुंह नहीं उठा पाता है। और उसकी आत्मा अपने पंखों को खोल अनंत आकाश के लिए उड़ान नहीं भर पाती है। यही है उसकी पीड़ा, चिंता और रुग्णता। यही है उसकी अशांति।

आकाश की स्वतंत्रता को उपलब्ध न कर पाना ही संसार है, बंधन है।

परंतु इसी संताप में सत्य की यात्रा का शुभारंभ छुपा हुआ है। जीवन जैसा है, उससे संतुष्ट हो जाना, शुभ नहीं है। जो उससे संतुष्ट हो जाता है, वह विकसित ही नहीं होता। विकास तो है असंतोष में। कली, कली होने से ही संतुष्ट हो, तो फिर फूल का जन्म कैसे होगा?

गहरे असंतोष और उत्कट अतृप्ति में ही प्राण सजग होते हैं और उनमें प्रसुप्त ऊर्जा जागती है और आत्म-सृजन में संलग्न होती है।

इसलिए, स्मरण रहे कि असंतोष की अनुभूति दिव्य अनुभूति है। और जीवन को उसके केंद्र तक ले जाने वाली आधारभूत शक्ति भी वही है।

परिधि के जीवन से संतुष्ट हो जाने को ही मैं अधर्म कहता हूं। इसके अतिरिक्त कोई पाप नहीं है।

परमात्मा की उपलब्धि के पूर्व, जो भी जीवन-पथ पर मनुष्य को रोकने में सर्वाधिक समर्थ है--वह है, आलस्य। और यही आलस्य संतोष के रूप में प्रकट होता है।

पुरुषार्थ तो जन्मजात असंतोष है।

और जहां पूर्ण असंतोष है, वहीं पूर्ण पुरुषार्थ है।


नेति नेति 

ओशो

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