Thursday, June 15, 2017

आपने मुझे नाम दिया है: योगानंद। इसका रहस्य समझाएं।




योगानंद,
 
रहस्य कुछ भी नहीं है। जब तुम्हें देखा, तुम ऐसे अकड़ कर बैठे थे, तो मुझे लगा कि योगी मालूम होते हो। बिलकुल एकदम आसन मार कर बैठ गए। और तुम्हारी नाक पर बड़ा अहंकार। और ढंग तुम्हारा ऐसा जैसा कोई बहुत महान कार्य कर रहे हो! संन्यास क्या ले रहे हो, संसार का बड़ा उपकार कर रहे हो, उद्धार कर रहे हो। सो मैंने तुम्हें नाम दे दिया--योगानंद। अब तुम न पूछते तो मैं कभी बताता भी नहीं, क्योंकि ये बातें बताने की नहीं। ये तो मैं अपने भीतर छिपा कर रखता हूं। अब तुमने खुद ही अपने हाथ से झंझट करवा ली।

नामों में क्या रखा है योगानंद? कुछ न कुछ लेबल चाहिए। मगर कुछ लोग हर चीज में राज खोजने में लगे रहते हैं। जैसे किसी चीज को साधारणतया स्वीकार कर ही नहीं सकते, राज होना ही होना चाहिए! चीजें बस हैं।

पिकासो से एक आलोचक ने कहा कि तुम्हारे चित्र का अर्थ क्या है? पिकासो ने कहा, अर्थ! यह खिड़की के बाहर झांक कर देखो, गुलाब का फूल खिला है, इसका क्या अर्थ है? और अगर गुलाब का फूल खिल सकता है मस्ती से, बिना अर्थ में, तो मेरी पेंटिंग में भी अर्थ होने की क्या जरूरत है? कोई मैंने ठेका लिया है अर्थ का? यह भी मौज है, वह भी मौज है।

मगर मैं नहीं सोचता कि आलोचक इससे राजी हुआ हो। आलोचक को तो अर्थ चाहिए ही। वह तो हर चीज में अर्थ होना ही चाहिए, अर्थ न हो तो बस उसकी सब नौका डगमगा जाती है।

तुम अनाम पैदा हुए हो, अनाम ही जाओगे, अनाम ही तुम हो। मगर काम चलाने के लिए नाम रखना पड़ा। नहीं तो यहां तीन हजार संन्यासी हैं, अब तुम्हें बुलाना हो तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाए। या तो तुम्हारा वर्णन करना पड़े विस्तार से, कि ऐसी नाक, ऐसे कान, ऐसे बाल और उसमें बड़ी झंझटें हो जाएं।

ऐसा मैंने सुना है कि एक दफा एक आदमी पिकासो के घर चोरी कर गया। पूछा पिकासो से पुलिस वालों ने कि कुछ उस आदमी की हुलिया बताओ। पिकासो ने कहा, अब हुलिया क्या बताऊं? एक चित्र बना देता हूं उसकी हुलिया का। पेंटर था, उसने चित्र बना दिया। कहते हैं, पुलिस ने पकड़े, सात आदमी पकड़े--एक लेटर बाक्स पकड़ा, एक रेफ्रिजरेटर पकड़ा! क्योंकि वह जो उसने चित्र बनाया था, उससे ये सब तो निकलीं। पिकासो के पास जब यह पूरी कतार ले कर वे आए तो पिकासो ने सिर ठोंक लिया, उसने कहा, हद हो गई! और पिकासो ने कहा कि क्षमा करो, किसी की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जो चीज मैं सोचता था चोरी गई है, वह चोरी गई ही नहीं है। वह चोर आया जरूर था, मगर ले जा कुछ भी नहीं सका, इसलिए फिक्र छोड़ो।

उन्होंने कहा, अब कैसे छोड़ सकते हैं? इन सातों ने तो स्वीकार भी कर लिया है! अब पुलिस स्वीकार किसी से भी करवा ले। मारो डंडे! जिसने चोरी नहीं की वह भी कहता है कि हां की है। वही ज्यादा सार है कि हां की है।

अब योगानंद को अगर मुझे खोजना हो तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी। अब कहो कि लाल रंग के कपड़े पहने हुए हैं, कोई लेटर बाक्स निकाल कर ले आए। लेटर बाक्स तो पुराने संन्यासी हैं। कोई मील का पत्थर उखाड़ लाए; वे भी पुते खड़े हैं बिलकुल संन्यासी रंग में। कौन-कौन सी झंझटें हो जाएं, क्या कहा जा सकता है! इसलिए नाम की जरूरत है, वैसे नामों में क्या रखा है!

योगानंद, कोई राज वगैरह नहीं है। योग से तुम्हारा क्या नाता? न आनंद से कोई संबंध। बस एक लेबल चिपका दिया। कामचलाऊ हैं सब नाम। लेकिन हर चीज में रहस्य खोजन की आदत गलत आदत है। जीवन को सरलता से स्वीकार करो, जैसा है वैसा स्वीकार करो। हर चीज में रहस्य खोजने के कारण न मालूम कितने मूरख तुम्हारा शोषण करते हैं, क्योंकि वे तुम्हें रहस्य में रहस्य बताते रहते हैं। चले हाथ की रेखाएं बताने, कोई बुद्धू मिल जाएगा लूटने। हाथ की रेखाओं में कोई रहस्य होना ही चाहिए! तुम पांव की रेखाएं क्यों नहीं बतलाते? उनमें भी कुछ रहस्य होना चाहिए। और कौन सी रेखा में कौन सा रहस्य है?

लेकिन मनुष्य के भीतर एक विक्षिप्तता है--हर चीज में रहस्य खोजने की। इस कारण दुनिया में बहुत तरह के रहस्यवाद चलते रहते हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं है। अगर है तो जीवन परम रहस्य है और जीवन की हर चीज रहस्य है। लेकिन उस रहस्य की कोई थाह नहीं है। कोई उसे माप नहीं पाया, कोई उसे माप भी नहीं सकता है। तुम भी रहस्य हो, मगर तुम्हारे नाम में क्या रखा है? तुम हो रहस्य! तुम्हारे होने में रहस्य है। मगर वह ऐसा रहस्य है कि जितने डूबोगे उतना ही पाओगे--और-और शेष है। जितना जानोगे, उतना पाओगे--और जानने को शेष है।

प्रीतम छवि नैनन बसी 

ओशो 

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