Wednesday, September 20, 2017

सन्देश वाहक



जो विचार हम करते हैं वह विचार हमें प्रीतिकर लगता है इसलिए हम उसे लोगों तक पहुंचाएं। साथ ही जिन लोगों तक पहुंचाना है उनके प्रति हमें इतना प्रेम मालूम होता है कि हम इतनी महत्वपूर्ण बात उन तक बिना पहुंचाए नहीं रुकेंगे। अकेला विचार के प्रति आदर का भाव खतरनाक भी हो सकता है। जिन लोगों तक हमें पहुंचाना है उनके प्रति प्रेम; वे ऐसी स्थिति में हैं कि उन तक पहुंचाना है इस खयाल को, यह भाव ज्यादा जरूरी और केंद्रीय होना चाहिए। क्योंकि जब उनके प्रति हमें प्रेम नहीं होता और केवल किसी विचार को पहुंचाने की तीव्रता हमारे मन में होती है, तो हम जाने-अनजाने लोगों के साथ हिंसा करना शुरू कर देते हैं। 

ऐसा पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में होता रहा है। मुसलमानों ने सारी दुनिया में जाकर लोगों के मंदिर तोड़ दिए, मूर्तियां तोड़ दीं। एक खयाल के वशीभूत होकर--कि यह खयाल कि मूर्ति परमात्मा तक पहुंचने में बाधा है, पहुंचाना है लोगों तक। फिर इस खयाल को पहुंचाने के लिए वे इतने दीवाने हो गए कि इस बात की फिकर ही छोड़ दी कि जिन लोगों तक पहुंचाना है, कहीं उनकी हत्या तो नहीं हुई जा रही? कहीं वे दबाए तो नहीं जा रहे? कहीं उनके साथ हिंसा तो नहीं हो रही? उन्हें विचार इतना महत्वपूर्ण हो गया कि जिस तक पहुंचाना है, वह कम महत्व का हो गया। तो सारी दुनिया में आज तक विचारों को पहुंचाने वाले लोगों ने बहुत हिंसा की है। और वह हिंसा इस कारण हो सकी कि विचार तो बहुत महत्वपूर्ण हो गया और जिस तक पहुंचाना है उसकी कोई फिकर न रही। 

तो यह खयाल में रखना जरूरी है कि विचार कितना ही महत्वपूर्ण हो, विचार से भी ज्यादा महत्वपूर्ण वह है जिस तक हमें पहुंचाना है। वह गौण नहीं है। वही मूल्यवान है। और हम विचार को सिर्फ इसीलिए उस तक पहुंचाना चाहते हैं। 

एक भूखा आदमी है। उसके पास हम भोजन पहुंचाते हैं। भोजन का कोई मूल्य नहीं है, मूल्य तो उस आदमी की भूख का है। वह भूखा है इसलिए हम भोजन पहुंचाना चाहते हैं। लेकिन अगर भोजन महत्वपूर्ण हो जाए और वह आदमी भोजन लेने से इनकार कर दे और हम उसके साथ दरुव्यवहार करने लगें, और जबर्दस्ती पकड़ कर, हथकड़ियां डाल कर उसको भोजन कराने लगें, तो फिर हमें भोजन महत्वपूर्ण हो गया और उसकी भूख कम महत्वपूर्ण हो गई। अब तक दुनिया में ऐसा ही हुआ है। विचार महत्वपूर्ण हो जाता है; जिस तक पहुंचाना है, जो भूखा है, वह कम महत्वपूर्ण हो जाता है।
यह ध्यान में रखना जरूरी है कि हमारे लिए विचार इतना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तो वही व्यक्ति है--वह जो दुख और पीड़ा में खड़ा हुआ आज का मनुष्य है, वही महत्वपूर्ण है। उसके उपयोग में आ सके कोई बात तो हम सेवा के लिए तैयार हैं। लेकिन उस पर कुछ थोप नहीं देना है। कोई फैनेटिक खयाल पैदा नहीं हो जाना चाहिए कि उसे उस पर थोप देना है। ऐसा अक्सर हो जाता है, सहज हो जाता है, अनजाने हो जाता है। हमें पता भी नहीं होता। तो वह ध्यान में रखना जरूरी है। जब काम को बड़ा करने का खयाल पैदा हो गया, तो वह काम सच में कैसे बड़ा होगा, कैसे उदात्त होगा, उसकी सारी भूमिका भी ध्यान में रख लेनी जरूरी है। तो पहली तो बात यह ध्यान में रख लेनी जरूरी है। 

दूसरी बात यह ध्यान में ले लेनी जरूरी है कि हम, जो इस दिशा में काम करने वाले मित्र होंगे, इन मित्रों को बहुत सा आत्म-परीक्षण, बहुत सा आत्म-निरीक्षण करना होगा। आप अकेले हैं तब तक कोई बात नहीं, आप जैसे भी हैं ठीक हैं। लेकिन जिस दिन आप कोई बात किसी दूसरे तक पहुंचाना चाहते हैं उस दिन अत्यंत विचार की, अत्यंत निरीक्षण की जरूरत पड़ जाती है। उस दिन यह बहुत ध्यान रखने की जरूरत है कि मैं क्या बोलता हूं, कैसे बोलता हूं, क्या मेरा व्यवहार है। क्योंकि एक बड़े विचार को लेकर जब मैं जा रहा हूं तो मेरे विचार का उतना ही आदर होगा जितने मेरे व्यक्तित्व और मेरे व्यवहार की गहराई होगी। क्योंकि मेरे विचार को तो लोग बाद में देख पाएंगे, मुझे तो पहले देख लेंगे। मैं तो उन्हें पहले दिखाई पड़ जाऊंगा, मेरा विचार तो मेरे पीछे आएगा। मुझे देख कर वे मेरे विचार और मेरे जीवन-दर्शन के प्रति उत्सुक होंगे। 

तो जब भी कोई संदेश पहुंचाने के किसी काम में संलग्न होता है तो संदेश पहुंचाना अनिवार्य रूप से एक आत्मक्रांति बननी शुरू हो जाती है। तब उसका व्यवहार, उसका उठना-बैठना, उसका बोलना, उसके संबंध, सब महत्वपूर्ण हो जाते हैं। और वे उसी अर्थ में महत्वपूर्ण हो जाते हैं जितनी बड़ी बात वह पहुंचाने के लिए उत्सुक हुआ है। वह वाहक बन रहा है, वह वाहन बन रहा है किसी बड़े विचार का। तो उस बड़े विचार के अनुकूल उसे अपने व्यक्तित्व को जमाने की भी जरूरत पड़ जाती है। 

नहीं तो अक्सर यह होता है कि विचार के प्रभाव में हम उसे पहुंचाना शुरू कर देते हैं और हम यह भूल ही जाते हैं कि हम उसे पहुंचाने की पात्रता स्वयं के भीतर खड़ी नहीं कर रहे हैं। इस पात्रता पर भी ध्यान देना जरूरी है।

अनंत की पुकार 

ओशो

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